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सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

माँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है--- कविता ---------



माँ  ज्यों ही   गाँव के करीब  आने लगी  है  --------- कविता |
माँ ज्यों ही गाँव के करीब आने लगी है 
माँ की आँख डबडबाने लगी है !

चिरपरिचित खेत -खलिहान यहाँ हैं ,
माँ के बचपन के निशान यहाँ हैं ;
कोई उपनाम - ना   आडम्बर -
माँ की सच्ची पहचान यहाँ है ;
गाँव की भाषा सुन रही माँ -
खुद - ब- खुद मुस्कुराने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!

भावातुर हो लगी बोलने गाँव की बोली 
अजब - गजब सी लग रही माँ बड़ी ही भोली ,
छिटके रंग चेहरे पे जाने कैसे - कैसे -
आँखों में दीप जले - गालों पे सज गयी होली ;
 जाने किस उल्लास में खोयी   -
 मधुर   गीत गुनगुनाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !


अनगिन चेहरों  ढूंढ रही माँ -
चेहरा एक जाना - पहचाना सा ,
चुप सी हुई    किसी असमंजस में
  भीतर भय हुआ अनजाना सा ;
खुद को समझाती -सी माँ -
बिसरी गलियों में कदम बढ़ाने लगी है !
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!


शहर था पिंजरा माँ खुले आकाश में आई -
थी अपनों से दूर बहुत अब पास में आई ,
 उलझे थे बड़े जीवन के अनगिन  धागे 
 सुलझाने की सुनहरी आस में आई
यूँ लगता है माँ के उग आई पांखें-
लग अपनों के गले खिलखिलाने लगी है
माँ की आँख डबडबाने लगी है !!! 

चित्र -- गूगल से साभार --
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