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सोमवार, 30 अक्तूबर 2017

माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा---------- कविता ---------

माँ अब समझी  हूँ प्यार  तुम्हारा ------  कविता
माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा !

बिटिया की माँ बनकर मैंने
तेरी ममता को पहचाना है ,
माँ -बेटी का दर्द का रिश्ता 
क्या होता है ये जाना है ;
बिटिया की माँ बनी हूँ जबसे 
पर्वत ये तन बना है मेरा ,
उसका  हँसना , रोना और खाना  
यही अब जीवन बना है मेरा
जब - जब उसको सहलाती हूँ ,
रोये तो  हँस बहलाती हूँ 
उसकी  हँसी में खो जाती हूँ  
तो याद आता दुलार तुम्हारा ! !

तुम जो  रोज़ कहा करती थी  
धरती और माँ एक हैं दोनों ,
अपने लिए नहीं जीती  
अन्नपूर्णा और नेक हैं दोनों ;
माँ बनकर मैंने जाना है  
 औरों की खातिर जीना कैसा है ,
जीवन - अमृत पीने की खातिर  
मन के  आँसू पीना कैसा है  ,

और  टूटा मन सीना कैसा है -?
खुद को मिटाया तो जाना है -
अम्बर सा विस्तार तुम्हारा ! !

खिड़की से देखा करती हूँ 
पल - पल राह तका करती हूँ ,
बिटिया पढ़कर घर आयेगी  
आकर गले से लग जायेगी ,
उस पल याद तुम्हारी आती है  
एक छवि मुखर हो जाती है  
जब थकी - थकी मेरी प्रतीक्षा में तू  
 आँगन में बैठी होती थी ,
देख के मेरा मुखड़ा माँ तू
ख़ुशी के  आँसू रो देती थी ;
 मेरी एक  हँसी की खातिर माँ
कोई कमी न तू रखती थी ;
मेरा वो रूठ जाना यूँ ही माँ 
और ना बंद होना मनुहार तुम्हारा ! !

महल में रहकर भी नहीं भूली हूँ 
वो धूल भरा  अँगना तेरा ,
पिता से सम्पूर्णता तेरी 
बिंदिया , पायल , वो कंगना तेरा ;
बड़ों का सफल बुढ़ापा माँ  
 नन्हें   बच्चों की किलकारी ,
दीवाली के हँसते दीप कहीं  
 होली की रंगीली पिचकारी ;
संध्या - वंदन ,  दिया बाती 
वो छोटा सा संसार तुम्हारा ! !
माँ अब समझी हूँ प्यार तुम्हारा ! ! !

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