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शनिवार, 13 जनवरी 2018

अलाव दर्द का -- कविता --

जलता रहा अलाव दर्द का  
 भीतर यूँ ही कहीं  मन में ; 
 शापित  से   कब से  भटक रहे   
हम जीवन के  वीराने  वन   में !

 आस के  मोती चुन -चुन कर  
 सदियों सी हर रात बितायी हमने ,
 ये दोष  भरोसे  का  था  अपने 
जो यूँ ठोकर खायी हमने  ;
 बरबस     ऑंखें बरस रही 
 सूखा  बदला  सावन में   !!


अपनेपन  के दावे उनके 
हकीक़त नहीं फ़साने थे  ,
सब अपनों को लिए थे साथ 
बस एक  हमीं बेगाने थे ;
पर जाने क्यों  वो  झाँकने लगते   
मेरे मन के उजले दर्पण में  ?


कहाँ किसी को कभी   
 इन्तजार हमारा  था  ?
 एक भ्रम सुहाना सा था   कोई  
 कब उनपे  अधिकार   हमारा था ?
फिर भी रह -रह  छा जाते हैं 
वो  ही मेरे शब्द सृजन में !!

जलता रहा अलाव दर्द का  
 भीतर यूँ ही कहीं  मन में !! 




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