जलता रहा अलाव दर्द का
भीतर यूँ ही कहीं मन में ;
शापित से कब से भटक रहे
हम जीवन के वीराने वन में !
आस के मोती चुन -चुन कर
सदियों सी हर रात बितायी हमने ,
ये दोष भरोसे का था अपने
जो यूँ ठोकर खायी हमने ;
बरबस ऑंखें बरस रही
सूखा बदला सावन में !!
अपनेपन के दावे उनके
हकीक़त नहीं फ़साने थे ,
सब अपनों को लिए थे साथ
बस एक हमीं बेगाने थे ;
पर जाने क्यों वो झाँकने लगते
मेरे मन के उजले दर्पण में ?
कहाँ किसी को कभी
इन्तजार हमारा था ?
एक भ्रम सुहाना सा था कोई
कब उनपे अधिकार हमारा था ?
फिर भी रह -रह छा जाते हैं
वो ही मेरे शब्द सृजन में !!
जलता रहा अलाव दर्द का
भीतर यूँ ही कहीं मन में !!