मेरी प्रिय मित्र मंडली

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

तुम्हारा मौन --- कविता --

तुम्हारा   मौन
असह्य हो चुका है  
तुम्हारा ये विचित्र मौन  ,
विरक्त हो जाना तुम्हारा 
रंग , गंध और स्पर्श के प्रति ;
अनासक्त हो जाना - अप्रतिम सौ सौंदर्य के प्रति    !
भावहीन हो बैठ उपेक्षा करना  
संगीत की मधुर स्वर लहरियों की  ,
स्वयं से रूठना और कैद हो जाना  ,
मन की ऊँची दीवारों के बीच 
नहीं है जीवन ----- !

उठो ! खोल दो मन के द्वार !
सुनो गौरैया की चहचहाहट और -
भँवरे की गुनगुनाहट में उल्लास का शंखनाद ! 
देखो बसंत आ गया है  -- - -- 
निहारो रंगों को  , महसूस करो गंध को  ,
जो उन्मुक्त पवन फैला रही है हर दिशा में ----
हर कोने में !
स्पर्श करो  सौंदर्य   को -
जिसमे निहित है जीवन की सार्थकता !
उठो !कि स्पंदन से भरी 
एक मानव देह हो तुम हो  ,
कोई निष्प्राण प्रतिमा नहीं !
तुम्हारे लिए ही बने है ;
रंग , गंध ,  सौंदर्य और संगीत
क्योंकि  तुम्हीं  निमित्त हो  
 सृष्टि में नवजीवन के!! 

संदर्भ---- एक अवसाद ग्रस्त युवा के लिए --- 

विशेष रचना

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