ना शत्रु बन प्रहार करो -
सुनो मित्र ! निवेदन मेरा भी -
मैं मिटा तुम भी ना रहोगे -
जुडा तुमसे यूँ जीवन मेरा भी !
करूं श्रृंगार जब सृष्टि का मैं -
फूल -फूल कर इठलाती
सुयोग्य सुत मैं धरा का
मुझ बिन माँ की फटती छाती
तुम जैसे ही ममता वश मैं -
नहीं कम कोई समर्पण मेरा भी !!
सदियों से पोषक हूँ सबका -
कृतघ्न बन- ना दो धोखा
निष्प्राण नही निःशब्द हूँ मैं
कहूं कैसे अपने मन की व्यथा ?
जड़ नही चेतन हूँ मैं
दुखता है मन मेरा भी !!
खाए ना कभी अपने फल मैंने -
न फूलों से श्रंगार किया ,
जग हित हुआ जन्म मेरा -
पल -पल इसपे उपकार किया;
खुद तपा- बाँट छाया सबको -
जुडा सबसे अंतर्मन मेरा भी !!
कसता नदियों के तटबंध मैं -
थामता मैं ही हिमालय को ,
जुगत मेरी कायम रहे सृष्टि -
महकाता मैं ही देवालय को ;
तुम संग बचपन में लौटूं -
संग गोरी खिलता यौवन मेरा भी !
स्वरचित -- रेणु
चित्र -गूगल से साभार