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बुधवार, 25 अक्तूबर 2017

कल सपने में ------------- नवगीत ---



कल  सपने  में ---- नव  गीत

कल सपने में हम जैसे 
इक सागर -तट पर निकल पड़े  , 
 हाथ में लेकर हाथ चले
और निर्जन पथ पर निकल पड़े !!
 
जहाँ फैली थी मधुर  चाँदनी
शीतल जल के धारों पे , 
कुंदन जैसी रात थमी थी  
मौन  स्तब्ध आधारों  पे ;
फेर के आँखे जग -भर से 
दो प्रेमी नटखट निकल पड़े !!

फिर से हमने चुनी सीपियाँ
और नाव डुबोई कागज की ,
वहीँ रेत के महल बना बैठे -
भूली थी सब पीड़ा जग की ; 
हम मुस्काये तो मुस्काते
तारों के झुरमुट निकल पड़े ! 

ठहर गई थी  वहाँ हवाएँ
 सुनने बातें  कुछ छुटपन की ,
दो मन थे अभिभूत प्यार से 
 ना बात थी कोई अनबन की ;
कोई भूली कहानी याद आई
 कईं  बिसरे किस्से निकल पड़े  ! 

कभी राधा थे - कभी कान्हा थे 
मिट हम -तुम के सब भेद गए ;
 कुछ लगन मनों में थी ऐसी 
हर चिंता , कुंठा छेद गए , 
मन के रिश्ते सफल हुए   
और तन के रिश्ते शिथिल पड़े   ! 

कल सपने में हम जैसे 
इक सागर तट पर निकल पड़े  , 
 हाथ में लेकर हाथ चले 
और निर्जन पथ पर निकल पड़े !!
चित्र -- गूगल से साभार -----------------------------------------------------------------------------------


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