पुरुष तुम प्रकृति मैं ,
रहे एक दूजे में लीन सदा!
मन सिंहासन पर मेरे ,
तुम ही रहे आसीन सदा!
जन्मे साथ ना जाना था संग-संग
गंतव्य से पर अनभिज्ञ रहे!
कब बात सुनी ज्ञानी मन की,
खुद को ही मान सर्वज्ञ रहे!
ना जान सके,जीवन नश्वर
जग-माया में रहे तल्लीन सदा!
मोह,विछोह ना जान सकी,
रही मुग्ध निहार स्व- दर्पणमें!
भूली सब रिश्ते नाते ,
जब डूबी सर्वस्व समर्पण में !
तुम से दूर रही तनिक भी
तड़पी ज्यों जल बिन मीन सदा!
मगन झूमी कस भुजबंध में,
जाने अभिसार के रंग सभी !
शाश्वत प्रेम में हो तन्मय,
जी ली, जी भर उमंग सभी!
परवाह की ना बेरंग दुनिया की,
सजाये स्वप्न नवीन सदा !
बड़ा कठिन विछोह सह जाना
और जाना तुमसे दूर प्रियतम!
दुख दारुण विदा की बेला का,
है सृष्टि का अटल नियम !
माटी की देह बनकर माटी,
माटी में हुई विलीन सदा !!