मेरी प्रिय मित्र मंडली

सोमवार, 5 दिसंबर 2022

प्रेम

 

प्रेम तू सबसे न्यारा .
कहाँ तुझसा कोई प्यारा!

शब्दातीत, कालातीत, 
ज्ञानातीत तू ही! 
इश्क मुर्शिद का तुझसे,
राधा की प्रीत तू ही !
चमक  रहा कब से क्षितिज पे 
बनकर ध्रुव तारा!

मीठा ना  तुझसा छ्न्द कोई.
ना  बाँध सके अनुबंध कोई!
उन्मुक्त गगन के पाखी-सा ,
सह सकता नहीं प्रतिबंध कोई 
 कोई रोके,रोक ना पाये 
 तोड़  निकले हर इक कारा!

आन मिले अनजान पथिक-सा  
साथ चल दे जाने किसके .
अरूप और अदृश्य तू ,
नहीं आता सबके हिस्से !
विरह के आनंद  में बह जाता   
बन कर अंसुवन धारा  !


चित्र -पाँच लिंक से साभार  


शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

क्या दूँ प्रिय उपहार तुम्हें?



प्रिय क्या दूँ उपहार तुम्हें ?
 जब सर्वस्व पे है अधिकार तुम्हें!
मेरी हर प्रार्थना में तुम हो,
निर्मल अभ्यर्थना में तुम हो!
तुम्हें समर्पित हर प्रण मेरा,
माना जीवन आधार तुम्हें!
मुझमें -तुझमें क्या अंतर अब!
 कहां भिन्न दो मन-प्रांतर अब
ना भीतर शेष रहा कुछ भी,
 सब सौंप दिया उर भार तुम्हें!
मेरे संग मेरे  सखा तुम्हीं 
मन की पीड़ा की दवा तुम्हीं
बसे  रोम रोम तुम ही प्रियवर
रही शब्द शब्द सँवार तुम्हें 
  दूं प्रिय! उपहार तुम्हें?
जब सर्वस्व पे है अधिकार तुम्हें 
 


बुधवार, 21 सितंबर 2022

एक दीप तुम्हारे नाम का ------- नवगीत

Image result for दीपक का चित्र

अनगिन   दीपों संग आज जलाऊँ  
एक दीप  तुम्हारे  नाम का  साथी ,
तुम्हारी प्रीत से हुई  है जगमग 
क्या कहना इस शाम  का साथी !!

 जब से   तुम्हें   साथी पाया है  
 आह्लादित मन   बौराया है ,
तुमसे   कहाँ  अब अलग रही मैं ?
खुद को  खो  तुमको पाया है
भीतर तुम हो  ,बाहर  तुम हो -
तू  गोविन्द है  मन धाम का साथी !!

ये  अनुराग  तुम्हारा   साथी 

जाने कौन गगन ले जाये ? 
पुलकित हो   बावरा  मन मेरा  
आनंद शिखर  छू जाये ,
तुम बिन अधूरा  परिचय मेरा  
तू प्रतीक  मेरे स्वाभिमान का साथी !!

मनबैरागी  बन   तजूं  रंग सारे 

मन रंगूँ तेरी प्रीत के रंग में ,
साजन  रहे अक्षुण साथ  तुम्हारा  
जीवनपथ पे चलूँ   संग-संग में 
बिन   तेरे  ये जीवंन मेरा  
है मेरे  किस काम  का साथी ? 

अनगिन   दीपों संग आज जलाऊँ 

एक दीप   तुम्हारे नाम का  साथी ,
तुम्हारी प्रीत से हुई  है जगमग 
क्या कहना इस शाम  का साथी !! 

स्वरचित -- रेणु
चित्र -- साभार गूगल -- 
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Gप्लस से साभार टिप्पणी --


Mahatam Mishra's profile photo
क्या कहना इस शाम का साथी, बिन तेरे ये जीवंन मेरा -अब है मेरे किस काम का साथी ? वाह वाह आदरणीया, मन मुग्ध करती रचना, स्वागतम
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सोमवार, 22 अगस्त 2022

जीवन बोध

 


 पुरुष तुम  प्रकृति मैं ,
रहे एक दूजे में लीन सदा!
मन सिंहासन पर मेरे ,
तुम ही रहे आसीन सदा!

जन्मे साथ ना जाना था संग-संग 
गंतव्य से पर अनभिज्ञ रहे!
कब बात सुनी ज्ञानी मन की,
खुद को ही मान सर्वज्ञ रहे!
ना जान सके,जीवन नश्वर
जग-माया में रहे तल्लीन सदा!


मोह,विछोह ना जान सकी,
रही मुग्ध निहार स्व- दर्पणमें!
भूली  सब रिश्ते नाते ,
जब डूबी सर्वस्व समर्पण में !
तुम से दूर रही तनिक भी 
तड़पी ज्यों जल बिन मीन सदा!

मगन  झूमी  कस  भुजबंध में,
जाने अभिसार के रंग सभी !
शाश्वत प्रेम में हो तन्मय,  
जी ली, जी भर उमंग सभी!
 परवाह की ना  बेरंग दुनिया की,
सजाये स्वप्न नवीन सदा !
 
बड़ा कठिन विछोह सह जाना 
और जाना तुमसे दूर प्रियतम!
दुख दारुण विदा की बेला का,
है  सृष्टि का अटल नियम !
माटी की देह बनकर  माटी, 
माटी में हुई  विलीन सदा !!

 

शनिवार, 16 जुलाई 2022

आज कविता सोई रहने दो !

आज  कविता सोई रहने दो,
मन के मीत  मेरे !
आज नहीं जगने को आतुर 
सोये उमड़े  गीत मेरे !
 

ना जाने क्या बात है जो ये
मन विचलित हुआ जाता है !
अनायास जगा दर्द कोई 
पलकें नम किये जाता है !
आज नहीं सोने देते  
ये रात-पहर रहे बीत मेरे !

आज ना चलती तनिक भी  मन की
उपजे ना प्रीत का राग कोई !
विरक्त  हृदय में अनायास ही
व्याप्त हुआ विराग कोई !
ना चैन  आता पल भर को भी 
 देह -प्राण रहे रीत मेरे! 

कोई खुशी  ना छूकर गुजरे,
बहलाती  ना सुहानी याद कोई।
लौटती जाती होंठों पर से ,
आ-आ कर फरियाद कोई  ।
लगे बदलने असह्य पीर में 
मधुर   प्रेम- संगीत मेरे!
आज नहीं जगने को आतुर 
सोये उमड़े   गीत मेरे !

चित्र - गूगल से साभार 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

पुस्तक समीक्षा और भूमिका --- समय साक्षी रहना तुम

       

 
मीरजापुर  के  कई समाचार पत्रों में समीक्षा को स्थान मिला।हार्दिक आभार शशि भैया🙏🙏


आज मेरे ब्लॉग क्षितिज  की पाँचवी वर्षगाँठ पर मेरे स्नेही पाठक वृन्द    को सादर आभार और नमन | शब्दों  की ये पूँजी आप सबके  बिना  संभव ना थी | हालाँकि पिछले वर्ष  लेखन में अपरिहार्य  कारणों से कई  बाधाएँ आईं पर   इस वर्ष  ये  सुचारू    रूप  से होने  की आशा है |इस वर्ष मेरे पहले काव्य-संग्रह का आना मेरे लिए बड़ी  उपलब्धि रही | पिछले दिनों  इस पुस्तक  की समीक्षा मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश  के  वरिष्ठ साहित्यकार  आदरणीय भोलानाथ जी कुशवाहा ने लिखी |जिसके लिए उनके लिये आभार के शब्द नहीं हैं मेरे पास |  उन्होंने अपने खराब  स्वास्थ्य के चलते भी पुस्तक को बड़े मनोयोग से पढ़ा और अपने विचार समीक्षा के रूप में लिखे | इस समीक्षा को  मिर्ज़ापुर के कई समाचार पत्रों में स्थान मिला |आदरणीय   भोलानाथ  जी को कोटि आभार  के साथ उनकी लिखी समीक्षा आज यहाँ   डाल रही हूँ | इसी के साथ  मेरे अत्यंत  स्नेही भाई   शशि गुप्ता  जी को कैसे भूल  सकती हूँ जिन्होंने पुस्तक की कई प्रतियाँ  मँगवाकर इन्हें    भोलानाथ जी और कई  अन्य साहित्यकारों तक  पहुँचाया | आपका हार्दिक आभार शशि भैया  | पुस्तक में आपके  अनमोल  मार्गदर्शन के साथ त्रुटी सुधार में आपकी भूमिका   अविस्मरणीय है | 


                          भूमिका 

विवेक के वितान पर तने विचार अक्सर सूखे और ठूँठ होते हैं। इसकी प्रकृति विश्लेषणात्मक होती है । ये तत्वों को अपने अवयवी तन्तुओं में तोड़कर अनुसंधान का उपक्रम रचते हैं । इसमें बुद्धि की पैठ अंदर तक होती है। मन बस ऊपर-ऊपर तैरता रहता है। यात्रा के पूर्व का इनका अमूर्त गंतव्य,  यात्रा की पूर्णाहूति के पश्चात मूर्त हो जाता है। यहाँ बुद्धि अहंकार से आविष्ट रहती है। अराजकता का शोर-गुल भी बना रहता है। परम चेतना के स्तर पर मन, बुद्धि और अहंकार एकाकार होकर आत्म-भाव में सन्निविष्ट हो जाते हैं। आत्मा की  कुक्षी में अंकुरित ये भावनाएँ हरित और आर्द्र होती हैं। यह मनुष्य को जीवन की अतल गहराइयों  तक ले जाती है । इसका स्वभाव संश्लेषणात्मक होता है। यह अपने इर्द-गिर्द के तत्वों को अपने में सहेजती  हैं । इसमें गंतव्य रहता तो हमेशा अछूता है, किंतु उसको छूने का उछाह अक्षय  बना रहता है । गंतव्य का स्वरूप अपनी शाश्वतता में तो सर्वदा अमूर्त रहता है, किंतु उसको पाने की उत्कंठा में वह सर्वदा मूर्त रूप में आँखों के आगे झिलमिल करता रहता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, यह उत्कंठा तीव्र से तीव्रतर होती जाती है: “ज्यों-ज्यों डूबे श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय”। यात्राओं का उत्स तो अनवरत और अनहद होता रहता है, अंत कभी नहीं होता । अतृप्तता का भाव सदा बना रहता है। यह ऊपर से सागर की लहरों के समान तरंगायित तो दिखती है, किंतु इसके अंतस का आंदोलन अत्यंत प्रशांत और गम्भीर होता है । यहाँ अहंकार के लिए कोई अवकाश नहीं ! अंदर के आत्म के सूक्ष्म का विस्तार कब बाहर के अनंत परमात्म में हो जाय और बाहर का अनंत कब  सिमट कर अंदर का सूक्ष्म बन दिल की धड़कनों में गूँजने लगे, कुछ पता ही  नहीं चलता! ‘अयं निज:, परो वेत्ति’ जैसे क्षुद्र भावों का लोप हो जाता है । मन सर्वात्म हो जाता है। भावनाओं की यही तरलता जब अंतस से नि:सृत होकर समस्त दिग्दिगन्त को अपनी आर्द्रता से सराबोर करने लगती है, तो कविता का जन्म होता है। इसी कालातीत सत्य का प्रकट रूप है, साहित्यकार और ब्लॉगर रेणु रचित कविता संग्रह -‘समय साक्षी रहना तुम’ । ।कहावत है, ‘सौ  चोट सुनार की  और एक चोट लोहार की ’। सदियों की सामाजिक क्रांतियाँ नारी-सशक्तिकरण की दिशा में अपनी  सौ चोटों  का वह  प्रहार प्रखर नहीं कर पायीं, जो सूचना-क्रांति ने अपनी एक चोट में कर दिया । सोशल मीडिया और ब्लॉग की धमक ने साहित्य-जगत को भी अंदर तक हिला रखा है । तथाकथित प्रबुद्ध साहित्यिकारों  के अभिजात्य वर्ग पर सृजन की अद्भुत क्षमता से युक्त,  सारस्वत स्त्रियों ने अपनी रचनाशीलता के पाँचजन्य-नाद से अब धावा बोल दिया है । रसोईघर में रोटियाँ पलटने वाली गृहिणियाँ,  रचनाशीलता के संस्कार में सजकर अपनी लेखनी से अब पौरुष की दम्भी सामाजिक अवधारणाओं को उलटने लगी हैं । वे अपने विस्तृत अनुभव संसार को अपनी लेखनी में प्रवाहित करने लगी हैं और उनकी यह सृजन-धारा अनायास  इंटरनेट के माध्यम से समाज के एक विपुल पाठक वर्ग को भिगोने भी लगी है । स्वभावत: भी,  नारी ममता की  मंजूषा, वात्सल्य की वाटिका और करुणा का क्रोड़ होती है ।  उसकी  अभिव्यंजना  की धारा का साहित्यिक मूल्यों के धरातल पर प्रवाहित होना ठीक वैसा ही है, जैसा कि मछली का जल में तैरना । ‘समय साक्षी रहना तुम ’ कविता-संग्रह इस तथ्य का अकाट्य साक्षी है।‘अंबितमे नदीतमे देवितमे  सरस्वती,  अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमम्ब नस्कृधि’  की ऋचाओं से  गुँजायमान ऋग्वेद की रचना की भूमि  हरियाणा से सरस्वती-सुता साहित्यकार  रेणु की कविताओं का यह पहला संग्रह साहित्य के आकाश में एक बवंडर बनकर चतुर्दिश आच्छादित होने की क्षमता से परिपूर्ण है । वंदना के विविध स्वरूपों से लेकर रिश्तों की ऊष्मा, खेत-खलिहान, गाँव-गँवई, चीरई-चिरगुन, गाछ-वृक्ष, सामाजिक संस्कार, माटी की सुगंध, चौक-चौबारों पर बीते बचपन की अनमोल यादें, मानवीय संबंधों की संवेदनाओं का सरगम, पिता का स्नेह, माँ की ममता, बेटी का प्यार और राष्ट्र-प्रेम का ज्वार – इन समस्त आयामों को अपनी अभिव्यंजना का स्वर देती कविताओं का यह संकलन, कवयित्री की रचनाशीलता के विलक्षण संस्कार का साक्षात्कार है। संग्रह के प्रेमगीत परमात्मिक चैतन्य की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित हैं। अभिसार की रुहानी सुरभि की प्रवाह-तरंगों पर आध्यात्मिकता का अनहद-नाद संचरित हो रहा है, जहाँ मानो अनुरक्त हृदय की भावनाओं का उच्छ्वास एक परम-विलय की स्थिति में थम-सा गया हो और उसमें प्रेयसी और प्रियतम  के प्रेरक, कुंभक और रेचक एक साथ विलीन होकर महासमाधि की स्थिति को प्राप्त हो गए हों ।शब्दों की बुनावट के साथ-साथ कहन की कसावट और शिल्प अत्यंत सहज, सुबोध और मोहक हैं, जो प्रीति की अभिव्यक्ति को अपने निश्छलतम स्वरूप में परोसते हैं ।सारत: अब बस इतना ही कि “हे समय! साक्षी रहना--- ‘समय साक्षी रहना तुम ’का !”                                                             


                                                            विश्वमोहन

                                                  सुप्रसिद्ध ब्लॉगर और   साहित्यकार  


रविवार, 20 मार्च 2022

नीड़ तुम्हारा चिड़िया !

 

कितना सुंदर -कितना प्यारा 
 है ये  नीड़  तुम्हारा  चिड़िया !
तिनका-तिनका  गूँथा हुआ है
इसमें प्यार तुम्हारा चिड़िया |

पढ़ी कभी न विद्यालय में,
अनथक खोयी  अपनी ही लय में!
धीरज , श्रम अलंकार तुम्हारे
डूबी  ना कभी संशय में!
नीड़कला की माहिर तुम 
हुनर ये जग  में  न्यारा चिड़िया !

रंग सपनों में नित भर-भरकर,
खूब सजाओ छोटा-सा ये घर!
निर्जनता में स्पंदन भर,  गूँजे
तेरा आहलादित  मधुर,करुण स्वर
उड़ता निर्मम समय का पाखी
ना आता लौट दुबारा चिड़िया |
 


आजन्म  निर्बंध और उन्मुक्त  
फिर भी  जग-भर की प्यारी तुम !
 तूफानों से भिड़-भिड़ जाती 
 कहाँ  कभी  हिम्मत हारी तुम !
जिधर जी चाहे,फुर्र से  उड़ जाती  
है सारा जहाँ तुम्हारा चिड़िया !

[चित्र गूगल से साभार ]
 
चिड़िया पर मेरी दो  अन्य रचनाएँ 
1-----'पेड़ ने पूछा चिड़िया से '
 https://renuskshitij.blogspot.com/2017/09/blog-post_12.html
2 आई आँगन के पेड़ पे चिड़िया 
https://renuskshitij.blogspot.com/2017/07/blog-post_5.html


शुक्रवार, 18 मार्च 2022

किसने रंग दीना डाल सखी ?

 


पीला, हरा,गुलाबी, लाल सखी!
किसने रंग दीना डाल सखी  ? 

मोहक चितवन, चंचल नयना, 
अधरों पर रुके -रुके बयना!
ये जादू ना किसी अबीर में था
सब प्रेम ने किया कमाल सखी! 

क्यों इतनी मुग्ध हुई गोरी? 
कर सकी ना जो जोराजोरी, 
यूँ बही प्रीत गंगधार नवल
सुध- बुध खो हुई निहाल सखी!


कलान्त  हृदय हुआ शान्त,
महक उठा प्रेमिल एकान्त !
दो प्राण हो बहे एकाकार
बिसरे  जग के जंजाल सखी!


चित्र-गूगल से साभार 

बुधवार, 9 मार्च 2022

बस समय ने सुनी -- कविता



ना  जान  सका  बात  कोई
समर्पण   और  अभिसार  की
सुनी समय  ने  बस   कहानी
तेरे  मेरे  प्यार  की  !

 पेड  ने आँगन के  
सुनना चाहा  झुककर  इसे,
देखना  चाहा  कभी
चिड़िया  ने  रुककर   इसे
निहारने लगी , चली ना
एक मधु बयार  की ,
सुनी समय  ने  बस   कहानी
तेरे  मेरे  प्यार  की  !

मिल  गए  भीतर  ही
जब  देखने निकले  तुम्हें ,
खो  बैठे  खुद  को  ही
जब    ढूँढने  निकले  तुम्हें ,
पड़ गयी  हर  जीत  फीकी 
थी बात ऐसी 
हार की
सुनी समय  ने  बस   कहानी
तेरे  मेरे  प्यार  की  !

स्वाति बूँद से आ  गिरे
हृदय  के  खाली  सीप  में!
 चंदन वन  महका  गए,
जीवन के  बीहड़   द्वीप  में!
इस जन्म  ना  थी चाह कोई ;
है प्रार्थना  युग- पार  की !
सुनी समय  ने  बस   कहानी
तेरे  मेरे  प्यार  की


देखते  ही बीत  चले
दिन,  महीने  , साल  यूँ  ही  !
ना   फीके पडे रंग चाहत  के
रहा  तेरा  ख्याल  यूँ  ही  !
प्रगाढ़  थी  लगन  मन की
कहाँ  बात  थी अधिकार   की  ?
सुनी समय  ने  बस   कहानी
तेरे  मेरे  प्यार  की  !!

सोमवार, 7 मार्च 2022

रहने दो कवि!(नारी विमर्श पर रचना )

 

🙏🙏

प्रस्तुत रचना,किसी अन्य कवि की शोषित नारी के लिए लिखी गई रचना पर,काव्यात्मक प्रतिक्रिया स्वरुप लिखी गई थी।

ना उघाड़ो  ये   नंगा सच  
ढका ही रहने दो , कवि!
 दर्द  भीतर का  चुपचाप 
 आँखों से बहने दो कवि!//

  
 
ये व्यथा लिखने में,  
कहाँ लेखनी  सक्षम कोई ?
लिखी गयी  तो  ,पढ़ इन्हें 
 कब  आँख हुई नम कोई ?
संताप सदियों से सहा है 
 यूँ ही सहने दो कवि!

डरती रही घर में भी 
 ना बची खेत - क्यार में !
कहाँ- कहाँ ना लुटी अस्मत,
बिकी बीच बाज़ार में !
 मचेगा शोर  जग -भर में 
 ये जिक्र जाने दो ,कवि!
 
 लिखने से  ना होगा तुम्हारे  
 कहीं इन्कलाब कोई 
रूह के जख्मों का मेरे 
ना दे पायेगा  हिसाब कोई
मौन रह ये रीत जग की 
 निभ ही जाने दो, कवि !  
 दर्द  भीतर का  चुपचाप 
 आँखों से बहने दो कवि!/
 

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

कहो शिव!

कहो शिव! क्यों लौट गए खाली

मुझ अकिंचन के द्वार से तुम ?

क्यों कर गए वंचित पल में,

करुणा के उपहार से तुम! 


दावानल-सी  धधक रही,

विचलित उर में वेदना!

निर्बाध हो कर रही भीतर

खण्डित धीरज और चेतना!

सर्वज्ञ हो कर  अनभिज्ञ   रहे,

मेरे भीतर के हाहाकार से तुम!


आए जब तुम आँगन मेरे, 

क्यों न तुम्हें पहचान सकी!

तुम्हीं थे चिर-प्रतीक्षित पाहुन

 थी मूढ़  बड़ी ,ना जान सकी!

क्यों ठगा मुझे यूं छल-बल से

भर गए क्षणिक विकार से तुम!


एक भूल की न मिली क्षमा,

कर-कर हारी हरेक जतन!

कैसे इस ग्लानि से  उबरूं ? 

बह चली अश्रु की गंग-जमन!

ये क्लांत प्राण हों जाएं शांत,

जो कर दो मुक्त उर-भार से तुम!







गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

कहाँ आसान था

 

था वो मासूम-सा 
दिल का  फ़साना साहेब !
बहुत मुश्किल था पर
प्यार निभाना साहेब !

दुआ थी  ना कोई चाह  अपनी 
यूँ ही  मिल गयी उनसे  निगाह अपनी 
 बड़ा  प्यारा था उनका
सरेराह मिल जाना साहेब !

रिश्ता ना जाने कब का
लगता  करीब था
 उनसे  यूँ मिलना 
बस अपना नसीब था 
अपनों से प्यारा  हो गया था
 वो एक बेगाना साहेब ! 

वो सबके खास थे
पर अपने तो दिल के पास थे
हम इतराए हमें मिला
दिल उनका नजराना साहेब! 

हमसे निकलने लगे जब बच कर
खूब मिले ग़ैरों से हँस कर!
फिर भी रहा राह तकता,
दिल था अजब दीवाना साहेब!

बातें थी कई झूठी,
अफ़साने बहुत थे!
हुनर उनके पास
बहलाने के बहुत थे!
ना दिल सह पाया धीरे- धीरे
उनका बदल जाना साहेब! 

बहाए आँसू  उनकी खातिर 
और    उड़ाई  नींदें अपनी 
जो  लुटाया उन पर हमने 
 था अनमोल खजाना साहेब 

बहुत संभाला हमने खुद को
दर्द को पीया भीतर -भीतर
पर ना रुक पाया जब -तब
अश्कों का छलक जाना साहेब!

अलविदा  कहना  कहाँ आसान था ?
 टूटा जो रिश्ता वो मेरा गुमान था !
 पर,बेहतर था  तिल-तिल मरने से ,
एक दफ़ा मर जाना  साहेब !


शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

सरस्वती वंदना

🌷🌷सभी साहित्य प्रेमियों को बसन्त पंचमी की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं🙏🙏🌷🌷🙏🙏


मां सरस्वती, मैं सुता तुम्हारी ,

हूँ  हीन छंद , रस, अलंकार से माँ !

फिर भी  भर दी  गीतों से झोली 

ना भेजा खाली निज द्वार से माँ !

 

हाथ उठा ना माँगा कुछ तुमसे 

बैठ कभी ना ध्याया  माँ ,

पर वंचित ना रखा तुमने   

करुणा के  उपहार  से  माँ !

 

 रहे शुद्धता मन ,वाणी ,कर्म में  

रखना निष्पक्ष  कवि -धर्म मेरा .

भावों में रहे सदा  शुचिता 

दूर रहूँ अहंकार से माँ !



संवाहक बनूँ सद्भावों  की 

रचूँ  प्रेम के भाव अमिट, 

भर बुद्धि -ज्ञान  के दर्प-गर्व में   

बचूँ व्यर्थ की रार से माँ !



यही आंकाक्षा  मन में मेरे 

रहूँ बन प्रिय संतान तुम्हारी !

 ग्लानि कोई ना शेष हो भीतर 

 जब  जाऊँ संसार से माँ !

🙏🙏🙏

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

मैं सैनिक

  

🙏🙏🌷🌷🙏🙏सेना दिवस के शुभ अवसर पर देश के वीर बांकुरों को शत- शत नमन, जो रण में वीर हैं तो विपदकाल में धीर हैं 🙏🙏🌷🌷🙏🙏

निर्भय हूँ  और राष्ट्र को
आश्वासन देता  निर्भय  का ,
मृत्यु -पथ का राही मैं
चिर अभिलाषी  अमर विजय का!

मिटा दूँ शत्रु नराधम  को  
जो छुप के घात लगाता ,
पल में डालूँ  चीर  
जब आँख से आँख मिलाता ,
 टकराऊँ  तूफानों से
मैं झोंका  प्रचंड प्रलय का !

माटी  मांगे  खून 
झट से कर्तव्य निभाता,
मातृभूमि  की बलिवेदी पर ,
हँस अपना शीश चढ़ाता,
 नश्वर  जीवन से मोह कैसा ?
नियत पल अनंत विलय का !

मंजुल भाव   लिए भीतर
फौलादी ये तन मेरा  ,
भूला अपनों को  इस  धुन में
 देशहित सर्वस्व समर्पण मेरा ,
वरण  कर चला  सतपथ का
ना सर झुके हिमालय का 
मृत्यु -पथ का राही मैं
चिर अभिलाषी  अमर विजय का!

 

 

 

 


मंगलवार, 11 जनवरी 2022

सब गीत तुम्हारे हैं


 




तुम्हारी यादों की  मृदुल
 छाँव में  बैठ सँवारे  हैं 
मेरे पास कहाँ कुछ था
 सब गीत तुम्हारे हैं |


मनअम्बर पर टंका हुआ है,
ढाई  आखर  प्रेम  तुम्हारा।
थके  प्राणों का  संबल  जो,
पग - पग  पे  करता उजियारा।
हुए निहाल  निहार तुम्हें,
बिसरे दुःख सारे हैं!

सराबोर हैं आत्मरस से ,
ये जो छंद अनोखे हैं ।
तुमसे ही जीवनसार मिला,
शेष दावे सब थोथे है!
वही पल बस लगते अपने,
जो साथ गुजारे हैं!


तुम आए बदल गयी  दुनिया  
खुली पोटली सपनों की ,
सतरंगी आभा से सजे
बदली है भाषा नयनों की!
नये गगन में मनपाखी ने
 पंख पसारे हैं !

प्रीतनगर की इन गलियों से, 
अब तक तो अनजान थे हम।
अब कहीं जाकर मिला बसेरा,
कब किस दिल के मेहमान थे हम।
सालों मनचले सपनों ने ,  
ये  पथ खूब निहारे हैं!


तुम्हारी यादों की  मृदुल
 छाँव में  बैठ सँवारे  हैं 
मेरे पास कहाँ कुछ था
 सब गीत तुम्हारे हैं |

विशेष रचना

पुस्तक समीक्षा और भूमिका --- समय साक्षी रहना तुम

           मीरजापुर  के  कई समाचार पत्रों में समीक्षा को स्थान मिला।हार्दिक आभार शशि भैया🙏🙏 आज मेरे ब्लॉग क्षितिज  की पाँचवी वर्षगाँठ पर म...