
असह्य हो चुका है
तुम्हारा ये विचित्र मौन ,
विरक्त हो जाना तुम्हारा
रंग , गंध और स्पर्श के प्रति ;
अनासक्त हो जाना - अप्रतिम सौ सौंदर्य के प्रति !
भावहीन हो बैठ उपेक्षा करना
संगीत की मधुर स्वर लहरियों की ,
स्वयं से रूठना और कैद हो जाना ,
मन की ऊँची दीवारों के बीच
नहीं है जीवन ----- !
उठो ! खोल दो मन के द्वार !
सुनो गौरैया की चहचहाहट और -
भँवरे की गुनगुनाहट में उल्लास का शंखनाद !
देखो बसंत आ गया है -- - --
निहारो रंगों को , महसूस करो गंध को ,
जो उन्मुक्त पवन फैला रही है हर दिशा में ----
हर कोने में !
स्पर्श करो सौंदर्य को -
जिसमे निहित है जीवन की सार्थकता !
उठो !कि स्पंदन से भरी
एक मानव देह हो तुम हो ,
कोई निष्प्राण प्रतिमा नहीं !
तुम्हारे लिए ही बने है ;
रंग , गंध , सौंदर्य और संगीत
क्योंकि तुम्हीं निमित्त हो
सृष्टि में नवजीवन के!!
संदर्भ---- एक अवसाद ग्रस्त युवा के लिए ---