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शनिवार, 13 अक्तूबर 2018

उलझन -- लघु कविता

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इक   मधुर एहसास है तुम संग  
 ये अल्हड लडकपन जीना ,
 कभी सुलझाना ना  चाहूँ  
 वो मासूम सी उलझन जीना !

  बीत  ना मन का मौसम जाए  
  चाहूँ समय यहीं थम जाए ;
 हों  अटल ये पल -प्रणय  के साथी  
 भय है, टूट ना ये  भ्रम जाए ,
संबल  बन गया  जीवन का 
 तुम संग ये नाता पावन जीना !

  बाँधूं  अमर  प्रीत- बंध मन के
 तुम  संग  नित  नये ख्वाब सजाऊँ, 
 रोज मनाऊँ तुम रूठो तो
पर    तुमसे रूठना -  कभी ना  चाहूं 
फिर भी  रहती चाहत मन   की  
इक   झूठमूठ की अनबन जीना !! 
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धन्यवाद शब्द नगरी - 

रेणु जी बधाई हो!,

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