था पतझड़ सा नीरस जीवन
आये बसंत बहार से तुम ,
सावन भले भर -भर बरसे
सौंधी पहली बौछार से तुम |
मन ये कितना अकेला था
एकाकीपन में खोया था ,
किसी ख़ुशी का इन्तजार कहाँ
बुझा - बुझा हर रोयाँ था ;
बरसे सहसा तपते मन पे
शीतल मस्त फुहार से तुम !
मधु सपना बन ठहर गए
थकी मांदी सी आँखों में ,
हो पुलकित मन ने उड़ान भरी
थकन बसी थी पांखोंमें ;
उल्लास का ले आये तोहफा -
मीठी मन की मनुहार से तुम !!
चिर विचलित प्राणों में साथ
आन बसे संयम से तुम ,
कोई दुआ हुई सफल मेरी
बने घाव पे मरहम से तुम ;
मन के मौसम पलट गये
छाये निस्सीम विस्तार से तुम !!