मिले जब तुम अनायास -
मन मुग्ध हुआ तुम्हें पाकर ;
जाने थी कौन तृष्णा मन की -
जो छलक गयी अश्रु बनकर ?
हरेक से मुंह मोड़ चला -
मन तुम्हारी ही ओर चला
अनगिन छवियों में उलझा -
तकता हो भावविभोर चला-
जगी भीतर अभिलाष नई-
चली ले उमंगों की नयी डगर ! !
प्राण स्पंदन हुए कम्पित,
जब सुने स्वर तुम्हारे सुपरिचित ;
जाने ये भ्रम था या तुम वो ही थे-
सदियों से थे जिसके प्रतीक्षित;
कर गये शीतल- दिग्दिगंत गूंजे-
तुम्हारे ही वंशी- स्वर मधुर !!
डोरहीन ये बंधन कैसा ?
यूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
पास नही पर व्याप्त मुझमें
ऐसा जीवन - उल्लास कहाँ ?
कोई गीत कहाँ मैं रच पाती ?
तुम्हारी रचना ये शब्द प्रखर !
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धन्यवाद शब्दनगरी
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रेणु जी बधाई हो!,
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धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
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