भारतवर्ष के सांस्कृतिक ,सामाजिक और धार्मिक जीवन का एक अक्षुण अंग हैं राम और कृष्ण | राम जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम है - तो वही कृष्ण के ना जाने कितने रूप है | श्री कृष्ण को सम्पूर्णता का दूसरा नाम कहा गया है| वे चौसठ कला सम्पूर्ण माने गए हैं |सभी ललित कलाओं के केंद्र बिंदु श्री कृष्ण ही रहे हैं | वे योगेश्वर हैं- तो रसेश्वर भी हैं | | श्री कृष्ण के व्यक्तितव का विराट दिव्य तत्व - जन मानस को सदियों से आंदोलित करता आया है| उस की दिव्य आभा में ना जाने कितने भटके पथिको ने अपनी मंजिल पायी है | श्री कृष्ण एक चंचल बालक से लेकर एक कुटनीतिक परामर्शदाता से के साथ- साथ एक अच्छे मित्र , समर्पित प्रेमी , एक उत्तम गृहस्थ , विरल योद्धा और सामाजिक चिन्तक आदि अनेक रूपों में हमारे सामने आते हैं | एक माता - पिता से जन्म का संबध तो दुसरे पालक माता - पिता के साथ वात्सल्य का अनूठा रिश्ता !!
जन्म से पहले ही अनेक षड्यंत्रों की छाया में जन्म कहीं- तो जन्म के बाद पालन पोषण कहीं और !! ना जाने कितने कवियों , साहित्यकारों और इतिहासकारों ने श्री कृष्ण को प्रेरणा मान कर अनेक ग्रन्थ रचे | भक्तिकाल के कवियों में सूरदास ने तो श्री कृष्ण के जीवन के अनेक रूपों का अपनी रचनाओं में अत्यंत सजीव वर्णन किया है | कहा जाता है कि सूरदास जी जन्म से देख पाने में असमर्थ थे , फिर भी उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से श्री कृष्ण के जीवन को निहार कर अपनी रचनाओं में उनके जीवन की अनेक सुंदर सजीव झांकियां प्रस्तुत की | उनका बाल - रूप वर्णन तो बेजोड़ है ही - साथ ही गोपियों के विरह को जो उन्होंने शब्द प्रदान किये उनका साहित्य में कोई सानी नहीं है | सूर की रचनाओं में कृष्ण के जीवन की अनुपम झांकी सजी है | उनके साहित्य में मधुरता की धारा बहती है क्यो कि श्री कृष्ण उनके परम आराध्य है और वे अपने इस इष्ट देव के अनन्य भक्त !! बाल कान्हा के सहज सुदर रूप का वर्णन करते उनके अनेक पद साहित्य की कालजयी धरोहर है |
उनके पदों में वर्णित कान्हा अपनी अनूठी बाल सुलभ चेष्टाओं के कारण एक सुंदर छवि धारण कर हर व्यक्ति के मन में ऐसी जगह बना लेते हैं कि हर कोई सृष्टि के इस विलक्षण बालक के साथ सदैव के लिए अपनेपन के सूत्र में बांध जाता है |माखन चोरी करते , माँ से रुठते ,शिकायत करते , गोपियों के साथ रास रचाते कान्हा के अनगिन मनोहारी चित्र सजे हैं | सूरदास श्रृंगार रस के कवि थे | उन्होंने संयोग और वियोग दोनों तरह के भावों को बड़ी मधुरता के साथ प्रस्तुत किया है | सूर के बालकृष्ण के जीवन के कुछ चित्र देखिये ----------------
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
सुर दास जी ने बालक कृष्ण को पालने में झुलाती माँ यशोदा के साथ बाल कृष्ण की शयनावस्था का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है| वे कहते हैं;;कि हरि को माँ यशोदा पालने में झुलाती है --पालना हिलाती है -- नन्हे कान्हा को दुलारती है --कभी उनका मुख चूमती कुछ गाने लगती हैं | फिर शिकायत करती हैं कि क्यों नींद मेरे लाल को सुलाने नहीं आती अर्थात माँ की इतनी चेष्ठाओं के बाद भी कान्हा अभी तक जगे हैं | फिर कह्ती हैं - कि अरी निदिया तुझे कान्हा बुलाता है-- तू आ क्यों नहीं जाती ? कन्हैया अभी भी कभी पलके मूंद लेते हैं - तो कभी होंठ हिलाने लगते हैं | हरि को सोया जानकर वे चुपचाप संकेतों से बात करती हैं, फिर भी कान्हा अकुलाकर उठ जाते हैं और माँ यशोदा फिर से मधुर स्वर में गाने लगती हैं | सूरदास जी माँ यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि नन्द की पत्नी अर्थात यशोदा को जो सुख मिला है वह तो देवों और मुनियों के लिए भी दुर्लभ है |
एक अन्य पद में सूरदास जी लिखते है कि--------
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
अर्थात हरि हाथ में मक्खन लिए शोभायमान हो रहे हैं | अभी बस घुटनों के बल ही चल पाते हैं अर्थात बड़े छोटे हैं | उनका तन धूल में लिपटा है तो मुंह दही में सना है | गाल बड़े सुंदर और आँखे बड़ी चंचल हैं | वहीँ माथे पर गोरोचन का तिलक लगा है | बालों की लट कपोल को छूकर इस तरह निकल रही है मानों भँवरे रस पीकर मतवाले हो गए हों | उस पर गले में पड़े सिंह नख का कंठहार - प्रभु के बाल रूप के सौन्दर्य को कई गुना बढ़ा रहा है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु के इस रूप को निहारने का एक पल का सुख भी कई सौ कल्प जीने के सुख से कहीं बढ़कर है |
एक और पद में भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने बालक कृष्ण के बेजोड़ रूप का चित्र खींचा है जिसमे हरि माँ यशोदा दे बड़ी ही बाल सुलभ शिकायत करते नजर आते हैं -- पूछते हैं कि
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी ?
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त ,गुहत ,न्हवावत -जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
अर्थात ' 'मैया ये मेरी चोटी कब बड़ी होगी ? कितनी बार तू मुझे दूध पिलाती है पर ये है कि अब तक छोटी की छोटी ही है | तू तो कहती थी कि ये बलराम की चोटी जैसी खूब लम्बी मोटी हो जायेगी , इसके लिए तू नित्य प्रति मुझे नहलाकर बालों को संवारती है चोटी में गुंथती है ताकि ये बड़ी होकर भूमि पर नागिन जैसी लोटने लगे -इसी लिए तू मुझे रोज कच्चा दूध पिलाती है और माखन रोटी खाने को नहीं देती है '' [ जो कि श्री कृष्ण का प्रिय आहार है ]सूरदास जी कहते हैं कि तीनों लोकों में कृष्ण - बलराम की जोड़ी मन को हर अनंत सुख देने वाली है | इस पद में बाल कृष्ण का सरस वार्तालाप मन को आलौकिक सुख प्रदान करता है |
अन्य पद में भी सूरदास जी बाल मन का मनोवैज्ञानिक चित्रण कर कन्हैया की माँ से शिकायत को बड़े ही मीठे शब्दों में पिरोया है | बाल कृष्ण माँ को कहते हैं कि---
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
अर्थात '' माँ मुझे दाऊ अर्थात बलराम बहुत चिढाता है | मुझसे कहता है कि तुझे माँ यशोदा ने जन्म नहीं दिया बल्कि मोल लिया है | क्या कहूँ इसीदुःख के कारण मैं खेलने भी नहीं जाता हूँ | वो मुझसे बार बार पूछता है कि कौन तुम्हारी माता है और कौन पिता ? वह कहता है , कि नन्द बाबा और माँ यशोदा दोनों गोरे रंग के हैं फिर तू कहाँ से सांवले शरीर वाला है ? जब सब ग्वालों के आगे वह यह बात पूछता है तो वे सब भी चुटकी देकर हँस| ते , नाचते हैं और मुस्कुराते हैं | तू भी मुझी को मारना सीखी है , इस बलराम पर कभी भी नहीं खीजती '| ' माँ यशोदा कान्हा की ये रोष भरी बातें सुनकर उस पर रीझती हुई कहती हैं --'' कि सुनों कान्हा ! बलराम तो जन्म से ही चुगलखोर और धूर्त है अर्थात वो झूठ बोलता है | '' सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु को विश्वास दिलाने के लिए माँ यशोदा कहती है की उन्हें गोधन की सौगंध है - कि वे कृष्ण की जननी और वे उनके पुत्र हैं |
सूरदासजी अपने एक अन्य प्रसिद्ध पद में बालक कृष्ण के माखन चोरी में पकडे जाने पर उनकी बाल सुलभ सफाई को बहुत ही भाव स्पर्शी शब्दों में पिरोया है| नन्हे कान्हा द्वारा दी गयी इस सफाई को सुनकर सुनने वाले नन्हे कन्हैया के भोलेपन के प्रति अनायास ही आकर्षित हो जाते हैं | सुरदास जी लिखते है -------
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
कान्हा बड़ी ही मासूमियत से स्वयं को निर्दोष बताते हैं ''कि मेरी मैया मैंने माखन नहीं खाया है | ये बाल सखा मेरे बैरी हो गए हैं जिन्होंने मेरे मुख पर जबरदस्ती ये माखन लगा दिया है| तू ही देख तूने छींका कितने ऊपर लटकाया है
| तू बता मेरे इन नन्हे हाथों से मैं ये सब कैसे कर सकता हूँ ? '' ये कहकर अपने मुंह से माखन पोंछ कर कान्हा -माखन का दोना अपने पीछे छिपा लेते हैं | माँ यशोदा- जो कान्हा को पीटने के लिए छड़ी लिए खड़ी हैं --ने छडी फैंक दी और कान्हा के भोले उद्गारों को सुन मुस्कुराते हुए नन्हे श्याम को गले से लगा लेती हैं | सूरदास जी कहते हैं कि जो सुख यशोदा को मिला है उसे शिव और ब्रह्मा भी नहीं पा सकते |
बाल लीला के साथ साथ सूरदास जी ने गोपियों के विरह को बहुत ही गहराई से समझ उनके अंतस की पीड़ा को बड़े ही मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया
| जब बलराम के श्री कृष्ण मथुरा च ले गए तो विरह में डूबी गोपियों को समझाने के लिए उधो जी को भेजा जाता है -- उस समय रोष से भरी गोपियाँ उन्हें खरी खरी सुनाती है और कह उठती हैं -----
उधो मन नाहि दस बीस -
एक हुतो सो गयो श्याम संग
को अवराधै ईस॥
आगे वे कहती हैं
निशदिन बरसात नैन हमारे
सदा रहत पावस ऋतू हम पर
जब ते श्याम सिधारे |
असल में सूरदास ने ज्ञान और वैराग्य तत्व से कहीं अधिक महत्व प्रेम तत्व को दिया है | भले ही उन्होंने अपने काव्य में विरहणी गोपियों की वेदना को शब्द दिए हैं पर उनका उद्देश्य श्याम के प्रति प्रेम का ऊँचा मूल्याङ्कन करना ही था- जिसमे वे सफल हुए हैं | सच तो ये है कि सूरदास और श्याम सलोने एक मजबूत डोर से बंधे हैं - और अपनि रचनाओं के माध्यम से वे अपने आराध्य को मानव स्वरूप में ढालने में सफल हुये हैं |
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