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बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

कहीं मत जाना तुम -- कविता


बिनसुने मन की व्यथा  
दूर कहीं मत जाना तुम !
कब किसने कितना सताया 
सब कथा सुन जाना तुम ! !

जाने कब से जमा है भीतर 
दर्द की अनगिन तहें , 
 ज़ख्म बन चले नासूर 
अब तो लाइलाज से हो गए ; 
मुस्कुरा दूँ मैं जरा सा 
वो वजह बन जाना तुम ! ! 

रोक  लूँगी मैं  तुम्हें    
किसी पूनम की चाँद रात में ,
उस पल में जी  लूँगी मैं 
एक  उम्र तुम्हारे साथ में ;
नीलगगन की  छाँव  में बस  
मेरे साथ  जगते जाना तुम ! 

एक नदी बाहर है 
इक मेरे भीतर थमी है ,
 खारे जल की झील बन जो 
कब से  बर्फ़ सी जमी है ;
ताप देकर स्नेह का  
इसको पिघला जाना तुम ! ! 

साथ ना चल सको  
मुझे नहीं शिकवा कोई , 
मेरे समानांतर ही कहीं 
चुन लेना सरल सा पथ कोई ; 
निहार  लूँगी मैं  तुम्हें बस दूर से  
मेरी आँखों से कभी  
ओझल ना हो जाना तुम ! !

बिनसुने  मन की व्यथा  
दूर कहीं मत जाना तुम  !! 
-चित्र ०० गूगल से साभार - 
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