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बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

न आओ अब साथ मेरे - कविता

 


 न आओ  अब साथ मेरे  
अकेले ही   चलने दो मुझे ,
 खा -खा ठोकर जीवन -पथ पर 
खुद   संभलने दो मुझे !

बहुत दूर तक  तुम ना 
आ सकोगे  साथ  मेरे ,
शून्य मैं ,शिखर हो तुम
कब आ पाओगे हाथ मेरे ,
मरीचिका  में व्यर्थ की 
 ना खुद को  छलने दो मुझे !
   
 बरसे   थे  बादल से  तुम 
थी   तपती  धरा - सी मैं ,
धधकने लगी और ज्यादा 
 हुई  जो  शीतल  जरा -सी मैं ,
नियति से मिली   अगन में 
यूँ ही  जलने दो मुझे  !
 
 पढ़ना  खुद को  शब्दों में मेरे  
जो  तुमसे   तुम  तक जाते हैं, 
 कहाँ सदा संग रहता कोई
क्षणभंगुर सब नाते हैं, 
दूर छूटी  तनहाइयों से
फिर से  जुड़ने दो मुझे !
 
एकाकी रहने की जिद  नहीं 
ये तो है नियति मेरी 
खुद से मिल खुद में  रहूँगी,
 यही  अंतिम परिणिति मेरी 
 भ्रम के इस  गहरे  भँवर से  
 अब निकलने दो मुझे !
 
 चित्र -  निजी संग्रह 

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