मौसम बदलते देखे थे
अब तुम्हें बदलते देख रही हूँ
सूरज से आये थे एक दिन
साँझ सा ढलते देख रही हूँ !
जिन आँखो से पोंछ के आसूं
मुस्कानें भर दी थी तुमने,
आज उन्हीं में फिर से -
सावन उमड़ते देख रही हूँ !
दहल जाता है ये मन अक्सर
तुम्हें खो जाने के डर से,
कहीं वीरानों में ना खो जाऊं
खुद को संभलते देख रही हूँ !
क्या वो तुम ही थे
जिसके लिए जान बिछाई थी?
हवा हुए अनुबंध प्रेम के,
घावों को रिसते देख रही हूँ !
मेरी पहुँच से दूर हो फिर भी,.
अनजानी -सी ये जिद कैसी ?
चाँद खिलौने पर देखो -
मनशिशु मचलते देख रही हूँ !!