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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

जीवा ---कहानी --

जीवा
नीम  के पेड़ से छनकर आती धूप , जैसे  ही जीवा  के तन को  जलाने  लगी, हडबडा  कर उसकी  आँख  खुल  गई | ना  जाने कब  से  लेटा   था -वह नीम की छाँह तले  | जब सोया  था -तब सूरज घर  के पिछवाड़े  की तरफ था -अब ठीक  नीम के ऊपर चमक  रहा  है | भादो  की चिलचिलाती  धूप और  उस पर हवा बंद ,आसमान  में  बादलों का नामोनिशान  तक नहीँ   ! उमस भरे  मौसम में मानो साँस  थमी जाती  है    !  घर के भीतर जब  गर्मी  का  गुबार असहनीय  हो जाता है - तो  लाठी  के सहारे  सरकता जीवा इस  बरसों  पुराने  नीम के पेड़ के नीचे  आ  जाता है और वहां पड़ी  खाट पर  लेट  जाता  है , जो बहुधा  इस  नीम के नीचे पड़ी  ही रहती  है |   इस नीम  के पेड़  से उसे  इतना लगाव  है ,कि  किसी ने इसे कटवाने  का नाम लिया  नहीं कि  जीवा  से  उम्र भर  की दुश्मनी  मोल  ले ली  ----------------!  !
पतझड़  में धीरे  धीरे  पत्तों  से खाली होता   नीम   --बसंत  में   तांबे  ,सोने   , चांदी - जैसे   नए - नए      चिकने    पत्तों   से   भरा   नीम --फागुन  में    सफेद   फूलों   से  महकता    नीम  --  बाद में    हरी - पीली   निम्बौरियों     से लदा  नीम  --- और  सावन       के  मौसम      में बारिश  की   बूंदों  के  साथ टपकती  पकी -अधपकी   निम्बौरियां   ----इन   सबसे     बड़े   गहरे  से   जुड़ा  है  जीवा   !  !     छुटपन  से   अब  तक    नीम  के   पेड़   के  साथ    उसने  ना जाने  कितने  दुःख  सुख सांझे  किये   हैं   --तभी   तो  ,  भले    ही    इस  नीम के  पेड़  ने   उसके   घर   की   कच्ची   दीवारों   में  न जाने  कितनी   दरारें   डाल   दी ,पर   जीवा   ने  इस  पेड़   को  नहीं  कटवाया --अब  तो  घर की  पक्की    दीवार   पर   भी    दरार   का   खतरा   मंडरा    रहा  है   -- पर    अब   जीवन  के  दिन  ही  कितने  शेष   बचे   है    -------जीवा   ने  गहरी  साँस    लेकर   सोचा !  !  जब  से  मुए    इस  अधरंग    ने   उसे  अपाहिज    बना     पराधीन    सा  बना  दिया   है  --   तबसे   जीवन   की   चाह      ही   समाप्त   होती   जा  रही   है |वह   तो   भला    हो  -  लाजो    का , जिसने   गाँव   के   मनसुख   हकीम     का  बनाया    तेल  लाकर  - उस  तेल  से    दिन   में  दो  तीन   बार  मालिश  कर-  उसे   थोड़े   ही दिनों   में   इस  योग्य   बना    दिया   कि   वह   निरंतर    खाट   पर    पड़ा   ना रहे   |  उस  तेल  की   मालिश   व  लाजो   के  दिए   भावनात्मक  सहारे से  वह  लाठी  के  सहारे सरकने  के  योग्य    हो गया था .पर  जीवन  की  साँझ   में  लाजो   भी  हमेशा    के किये  साथ  छोड़   गई --- सोचते   सोचते   जीवा का   जी  भर  आया   |कुछ   महीने    पहले  ही  एक   मामूली  बुखार   लाजो  के  लिये जानलेवा  साबित    हो  गया |लाजो   की  मौत  पर  गाँव   के  सब लोग कह  रहे  थे  कि   लाजो  बड़ी  किस्मत    वाली  है  जो   उस   की   अर्थी   को  पति  का  कान्धा    मिलेगा     -- वह   सीधी स्वर्ग  में   जाएगी   ,पर   वह अभागा  अपनी क्षीण    काया   के  चलते    अपनी उस   औरत  की  अर्थी   को कान्धा भी  कहाँ   दे  पाया -- जिसने  जीवन  के हर  सुख -दुःख में  उसका साथ   दिया और  एक  मजबूत  सहारा  बन  कर हरदम   उसके   साथ   खड़ी   रही  | उसने  भी  लाजो  के लिए  जीवन की हर   ख़ुशी जुटाने  में   कोई   कमी न  रख छोड़ी थी, तभी   तो   उसने   अपनी  शादी  के  समय  ही  लाजो    को  समझा दिया  था  कि  वह  बिरादरी  की   दूसरी  औरतों    की तरह    घर  के   बाहर   जाकर   काम   नहीं    करेगी  , घर  में  ही रहेगी  और घर  संभालेगी-- कमाना उसका  काम  है  |लाजो ने  भी  इस   बात  को  गांठ    बाँध  लिया  था   ---जो मिला  उसी   में  गुजारा   कर   --व्यर्थ    की  शिकायत   कभी   नहीं  की |
 ऐसा नहीं   है  कि  जीवा  का  कोई  नहीं | भरा   पूरा  परिवार   है   जीवा  का --दो  बेटे   -दो  बेटियां ,  नाती-  पोते  , बहुएं   और  दामाद | दोनों  बेटियां  अपने  घर संसार   में  सुखी  हैं और   यदा  -कदा  उससे  मिलने    गाँव   आती  रहती   हैं    |बड़ा    बेटा   फ़ौज   से  रिटायर   हो  शहर   में  ही  बस    गया   है  |छोटे   बेटे   को  तंग   गली   के  इस    आधे  कच्चे- आधे  पक्के  पुश्तैनी    मकान   में  रहना  मंजूर    नहीं    ,जहाँ  थोड़ी   सी   बारिश    होते   ही   पानी  भर जाता  है  - ऊपर    से    इस    छोटे    से मकान    को  आधा  तो  इस  बूढ़े   नीम   ने  ही  ढक   रखा   है  , जमीन   में   जड़ें   और  ऊपर  आधी   छत  तक  फैली  इसकी   टहनियां   ---दूसरें  जीवा  की    इस  नीम  को  न  कटवाने   की   जिद ----!  !
ऐसा  भी   नहीं  कि   किसी  ने  जीवा  को  अपने  साथ   जाने  के   लिए  ना  कहा    हो | बड़ा   बेटा  अक्सर   मनुहार   किया  करता   है ,  कि  वह  शहर   आकर  उसके   साथ  मज़े  से  रहे  ,वहां  उसके   मकान   में   कई  कमरे   हैं--  जिनमें    हर   तरह   की  सुख  सुविधा   है   , पर  वहां   जाकर    जीवा  का  दम    घुटता    है  |एक  बार    बीमारी   के  दौरान , जब  उसे कुछ  दिन  शहर   में    रहना   पड़  गया , तो   वह   अपने    गाँव  लौटने   के  लिए  बेचैन   हो  गया  , इस  पर   बेटे को  उसे   तत्काल    गाँव   छोड़ने  आना   पड़ा  |छोटा  बेटा भी   हर   रोज  बच्चों  के  साथ  उससे   मिलने  आता    है   | उसने   गाँव    के  दूसरे  सिरे  पर  ही  तो   मकान  बनाया   है  |छोटी   बहू   हर दिन  आकर घर   की  साफ - सफाई  कर  जाती    है और  समय  पर नाश्ता  ,  खाना   इत्यादि    दे  जाती   है  | कुल  मिलाकर   जीवन   में   कोई  कमी  नहीं -  पर  उदासी    है  कि   जीवा  के  मन  से  जाती  ही नही   !   मन  अक्सर    बीते  समय  को  याद  करता   रहता   है  - वह  फिर  से  अतीत  की   गलियों  में  भटकने    लगा   था  ----------------
शादी के  कई   साल  बाद  जीवा  की  माँ  को  जब  संतान का  सुख  प्राप्त   हुआ  ,  वह  भी   गाँव  के  बूढ़े    पुजारी   बाबा   के  आशीर्वाद   से , तो  जीवा  की  माँ  ने नवजात  शिशु   को  बाबा  के   चरणों  में   डाल उसके   लिए आशीष  मांगी | पुजारी  बाबा ने  बड़े स्नेह   से  शिशु   को   उठाकर  पुनः    उसकी  माँ  की  गोद  में  डाल  दिया     और  आशीष  के  रूप  में  उसे  नाम   दिया  '' जीवन प्रसाद |'' माँ  के   लिए    इतने  लम्बे  नाम   का  उच्चारण   मुश्किल   था अतः  उसने   अपने  बेटे  को जीवा    कह कर  पुकारना    शुरू  कर  दिया  , फिर  क्या  था  पूरा   गाँव ही उसे  जीवा   कहकर   बुलाने लग  गया  |जीवन प्रसाद  नाम  तो  केवल  कागजों तक  ही  सीमित  रह  गया | मात्र   छह   साल की   उम्र   में  जब    माँ  -बाप  का  साया  उसके  सिर   से  उठ  गया  ,तो  उसके  मामा  उसे  अपने  साथ  अपने  गाँव  ले  गए  और  पढने   के  लिए गाँव  के  स्कूल  में  डाल   दिया  , पर  जीवा  का   मन   पढाई  में  हरगिज   ना  लग   पाया  | वह  तो  अपने   मामा  के  ढोल  की  थाप   में  अटका   रहता  | मामा   का   ढोल   बजते   ही  मानो  उसके रोम - रोम  में   स्फूर्ति  छा  जाती ! जीवा  का  मानना  था कि  उसके  मामा  सरीखा  ढोलकिया   उसने  अपने   जीवन  में   दूसरा   नहीं   देखा |  वह अक्सर   लोगों  को  अपने  मामा  के  ढोल की  थाप   के  किस्से   सुनाता |  मामा  ने  बालक    जीवा   में  पढने  के  प्रति    कोई  रूचि   ना  देख  कर ,  उसे   उसकी   दिलचस्पी    का   काम    सीखाने  में  ही   बुद्धिमानी   समझी  ताकि  वह  अपने  आने  वाले   कल  में  किसी  का  मोहताज  ना  रहे   |जीवा  ने   भी  अपने  मामा   से  बड़े  मनोयोग   से   ढोल    बजाने  की   बारीकियां    सीखी   | वह   घंटों     ढोल बजाने  का  अभ्यास     करता   और   बजाते -  बजाते   उस  की    थाप  की  लय   में   खो    जाता  | सीखने    के   दौरान  ही     मामा के   साथ -साथ  ढोलकिये के   रूप  में  जीवा  की   शौहरत    भी    दूर- दूर   तक  फ़ैल  गई  | मामा   के  साथ  ढोल  बजाते  समय  उसकी   जुगलबंदी   देखते   ही   बनती   थी  |
ढोल  बजाने   की  कला  में पूरी  तरह   पारंगत  हो  जाने  के  बाद , ये  हुनर लेकर   जीवा   अपने   गाँव  लौट  आया  |मामा ने  दूर  के     रिश्तेदार  की एक सुंदर व    सुशील लड़की  से  उसकी  शादी   करवाकर   उसका   घर   बसा  दिया |अब  ढोल  बजाना  उसकी   आजीविका   थी   |जोश  से  भरा  नौजवान    जीवा  अपने   काम के  प्रति  पूरी     तरह   समर्पित    था | गाँव  में  किसी  के   घर   जश्न    हो  , मंदिर    में   कोई   उत्सव   या  फिर   पीर  बाबा की  दरगाह  की   हफ्ते  की  चौकी  या   सालाना उर्स   हो , जीवा  के  ढोल  की  थाप    देखते  ही  बनती  थी |    लोग  उसके   ढोल  की  बहुरंगी  ताल   में   खो  जाते   और  जी  खोलकर  बख्शीश देते |  कई  गाँवों के    कुश्ती    के   मुकाबले   के  दौरान अखाड़े   में  उसके  ढोल  के  थाप  के  जोश  में   लोगों   ने   कई   बार  बाजी   पलटते    देखी   थी | जीतने   वाले   पहवान  के  समर्थक   उसकी       जेबें   बख्शीश   से  भर  देते  , तो    भीतर  ही  भीतर    अपने हुनर   का   सम्मान    पाकर   जीवा का  सीना  गर्व  से   फूल जाता  ! गाँव  में  जब  किसी  सरकारी  या  पंचायती     फरमान  को  लोगों  तक   पहुँचाना  होता  ,तो  जीवा   बड़े  उत्साह  से छोटा  ढोल   रस्सी के सहारे  गले  में  लटका  कर  गाँव  की   हर  गली  में  जाकर  बजाता  और  जोर  जोर से  चिल्लाता  ----सुनो    मुनादी   वाला   क्या   कहता  है  --मुनादी  की    आवाज़  को   ज़रा  गौर  से  सुनना  ---आज   आपके  गाँव  में  फलां - फलां  जगह  जलसा   है ----सरकारी  कैम्प   है  ---या   जो  कुछ   भी ---इतने  बजे   वहां    पधारने    की  कृपा करें --तो   मुहल्ले  भर   के लोग घरों से निकल   कर --छतों   से उतर  कर उसके  आसपास    इकट्ठे   हो  जाते  और उससे   कई - कई बार    मुनादी   के   बारे  में   पूछते  चले   जाते   तो  वह  भी  गर्वीली   मुस्कान के  साथ -साथ    मुनादी   के  बारे  में  बार-  बार   बताता   आगे  बढ़   जाता  -----
उसे  याद  आया  वह काम से  जब  घर  वापस   आता ,  तो  वह   अपने  दोनों  बेटों  को   ढोल  बजाने  का  हुनर   देने  की  बहुत   कोशिश   करता ,पर  न जाने   क्यों    दोनों  ने   कभी    भी   ढोल   बजाने    में  कोई  दिलचस्पी  नहीं    दिखाई   | हाँ   कामचलाऊ   ढोल  बजाना  उन्होंने अवश्य  सीख  लिया  था  -जिससे   उसके  गाँव  में  ना   होने  या   बीमार    पड़   जाने  पर  वे  काम  पर  जा  सके  - क्योंकि  परिवार  में    आजीविका    का  एकमात्र   यही  साधन  था  |वे काम पर  चले  तो  जाते  पर  मन   मारकर ! इस   कला  के प्रति  उनके  मन में  न  तो  कोई गर्व   था  ना   उत्साह --- जीवा के  मन से  एक  आह   निकल   गई   ----|वह  सोचने  लगा कि उन अभागों   को  ये  भी  नहीं  पता  था  कि उनके  जीवन की  हर  ख़ुशी  में  उनके  पिता  के  ढोल   की   थाप   का  कितना  बड़ा  योगदान  था  !  !------------- 
--एक  बार  जब  वह पास  के  शहर  में    फ़ौज की  टुकड़ी   के  एक समारोह में  ढोल  बजाने   गया  तो फौज - प्रमुख   ने   उसकी  कला  को खूब  सराहा  और   उसे  कुछ  बख्शीश    देनी  चाही   तो  उसने बिना  समय   गंवाए   अपने   मैट्रिक  पास  और   फ़ौज    में  जाने की  इच्छा  रखने  वाले  बेटे  के  लिए  नौकरी  देने  का आग्रह   किया   जिसे   जनरल  ने  सहर्ष  पूरा  कर  दिया |छोटे बेटे  ने  भी जब  गाँव  के स्कूल से  आंठवी    पास  कर   आगे  न  पढने  की घोषणा   कर  दी  तो  जीवा  ने  उसे  बहुत  समझाया कि  वह  जैसे  भी  हो   मैट्रिक तो  पास  कर ले ,  पर बेटे  ने  आगे  पढने    से  साफ़  इंकार  कर  दिया  |  कुछ  ही  दिनों  बाद  गाँव  के   मुखिया   के   बेटे  की  शादी   थी |   जीवा  के  ढोल की   थाप  पर  मुखिया  के   रिश्तेदार व  परिवार  के  लोग     खूब  थिरके   |इस  अवसर    पर  ख़ुशी  में  झूमते    मुखिया   ने  जब   जीवा  को  कुछ भी  मांगने    को , कहा तो  जीवा   ने   बड़ी   विनम्रता   से  अपने  छोटे   बेटे  को  काम  पर  लगाने  का  आग्रह  कर  डाला |जीवा  की  कला  के  मुरीद    मुखिया  ने  -कुछ  दिन  बाद  ही  उसके   बेटे  को  -गाँव  के  ही  सरकारी   स्कूल   में  चपरासी  की  नौकरी    दे  दी |  आज  उसी  छोटी   सी  नौकरी   से  वह  अपने  परिवार  का  पालन-पोषण   कर  मज़े  में  था  ! जीवा  को  दुःख   था  तो  सिर्फ  ये  कि बेटे  तो  दूर . उसके  नाती - पोते     भी ढोल   से दूर  दूर  भागते |  वे   हेय  दृष्टि से  इस  कला  को  देखते  |  वह  अपने  मन   की   व्यथा  अक्सर   अपनी  पत्नी लाजो  के  आगे  कह  सुनाता,  तो  वह  उसे  प्यार   से  समझाती  कि  बेटे -  पोते न  सही ,  कई  लोग और  हैं  जो    ढोल  बजाने  की   कला  की  कद्र  करते  हैं,  क्योकि  ढोल   -ढोलकी   तो  सदैव    ही समाज  में उत्सवो   की  शोभा   रहे  हैं  और  आगे  भी  रहेंगे अतः    जो  लोग  ख़ुशी  से सीखना   चाहें --  वह  अपनी  कला  उनमें  बांटे    !  उसे  लाजो  की  यह   सलाह  जंच  गई  और  वह    ढोल   सीखाने  की   योजना   पर  काम    करने  लगा  और   साथ   में  समर्पित    शिष्यों   की  तलाश   भी |यूँ   तो  पास  के  गाँवों   से कुछ  लोग   जरूर  उसके पास  अक्सर  ढोल    बजाने की  बारीकियां   सीखने  आते    और  काम चलाऊ   काम   सीखकर  चले  जाते  पर अपने  परिवार  और  गाँव में  उसे ऐसा  कोई  भी  व्यक्ति  न   मिल  सका  जिसे    ढोल  के  बारे  में   जानने  या   सीखने   की  गहरी   लगन  हो   |उसका बस  चलता  तो  वह  जीवन  भर   इस  कला  को  बांटता  , पर  जिंदगी    इसी उहापोह  में   निकल  गई  | बीमारी  तो  उसे  दो  साल  पहले  ही  आई  थी  पर जीवन   के  संघर्षों  ने   उसे   असमय   ही   बूढा   बना    दिया  था   |   इसी  बीच  अपनी   सांत्वना  से  ,उसके   दुखते मन  पर   मरहम   रखने  वाली लाजो  भी  उसका  साथ   हमेशा  के  लिए  छोड़   गई |उसके  मन   में  कसक  थी  कि  उसकी  कला  उसके  साथ   ही  मर  जाएगी   |जीवा  का  मन  भर   आया  और  आँखों  की  कोरें   गीली   हो  गईं   |उसे  किसी  ने  बताया  था  कि  उसके  बीमार   होने  के  बाद  ,जब  भी किसी  को  ढोल  बजवाना    होता   है ,तो    ढोलकिया  पास  के  गाँव  से  ही  आता  है |  अपने  गाँव  में   ऐसा  कोई  भी  नहीं  है  जो  इस    काम में   माहिर   हो  |

आज  ढोल  के  सुर  खामोश  थे  !  दो सालों से  ढोल  बजाने   को  उसके  हाथ   तरस   कर  रह  गए    थे |जीवा  को  याद  आया ----- कि  कितना प्यार   था  उसे   अपने  ढोल   -ढोलकियों  से ! वह  अपने  ढोल -  ढोलकियों  को  हमेशा   सजा   कर  रखता   |उन के ऊपर   लाजो  के  बनाये   रंग  बिरंगे   रेशमी   धागों   के   फूल  बांधकर  रखता  |उनके   रखरखाव    में  कोई  कसर  ना  रखता |  जब  वह   ढोल  की  रस्सी  कसने  के  लिए छल्ले  खींचता ,  तो  मन ही मन   मुस्कुराने    लगता   और  कोई  सुरीला  गाना  गाने   लग  जाता  ! उन्हें   नियम से    धूप  में  रखता   ताकि   फफूंदी   व  सीलन  से  इनका  चमड़ा  ख़राब  न  हो |  कभी  कोई   शरारत  से  उन्हें  छू    भी  देता   तो   वह  बरस  पड़ता --- लेकिन आज    ढोल    खूंटी  पर   यूँ  ही   टंगा  था  मात्र  जीवा की   तसल्ली     के  लिए  --हाँ  कभी  -  कभी बच्चों से  कहकर इसे   धूप  में  रखवाता  ताकि  ये  उसके  जीते  जी  ख़राब  ना  हो|--------


जीवा  को  कानो  से   कम सुनने   लग  गया   है  और  आँखों  में   मोतियाबिंद  उतर  आया  है ,लेकिन आँखों  से   कम  दिखने के  बावजूद   भी  उसे  अपने बरामदे  की   खाली   खूंटी  दिख  ही  गई ---जहाँ   उसका   ढोल  लटका   रहता था  --यह  देख   वह  जोर  से चिल्ला   पड़ा ---'अरे  मेरा  ढोल --- कहाँ  है   मेरा  ढोल  ?'' तभी  कम   सुनाई देने  के  बावजूद   भी  उसके कानों में  ढोल  की  मध्यम थाप की  आवाज   आ  ही  गई  |कोई  बड़े  धीमे  -धीमे ढोल   बजा   रहा  था |जीवा  ने  पहचान  ली   यह  ढोल  की  वही  थाप  थी ,  जो  वह   अक्सर   धार्मिक  स्थानों  पर  बड़ी  तल्लीनता  से  बजाया  करता  था  -जिसे   सुनकर   लोग    रूहानी    शांति   का  अनुभव करते  और  उसे  भरपूर    दाद   देते   |  बिलकुल वही   सधे  हाथ  और  मंजी    हुई   ताल --पर   कौन  है उसका ढोल चुरा कर   ,  इस  भीषण  गर्मी   में    उसे   बजाने  का  अभ्यास   कर रहा  है  ?  वह  बड़ी  उत्सुकता   और  तत्परता   से अपनी  लाठी   के   सहारे  खाट   से उठ   खड़ा   हुआ   और धीरे  धीरे  लाठी  टेकता ,  सरकता वह आँगन  के  गली  में  खुलते   दरवाजे  से  बाहर निकल  कर  देखने    लगा | 


 धुंधला  सा   उसे नज़र   आया  कि कोई  गली   के  मोड़   के  पास  पीपल  के  पेड़   के  नीचे  बने    चबूतरे   पर  बैठा  है  और  मगन    है  ढोल    बजाने  में  ---न  उसे आने  जाने  वालों  की  परवाह  है   ना  अपनी  सुध  ---   -- वह  खोया   है  --  ढोल  की थाप   में  --- मध्यम  स्वर   के  चाबुक   अनोखी   लय  में  ढोल    पीट  रहे    थे   --जीवा  धीरे - धीरे   उसकी  तरफ  बढने  लगा  |  उसका  दिल  जोर  जोर   से  यूँ  धडक   रहा  था  -मानो   वह  कोई  परीक्षा    देने जा  रहा  हो   --कुछ  ही पल  बाद  वह  उस  व्यक्ति  के  पीछे  जा  खड़ा   हुआ , जो पसीने  में लथपथ  था और  समर्पित   भाव  से  अपनी  साधना   में    खोया  था | पास  जाकर  जीवा  ने  उसके  कंधे  पर  हाथ  रखा   तो  वह  चौंक   पड़ा   और   उसने   ढोल  बजाना    बंद  कर  दिया  |  जब  उसने  पीछे   मुड़कर  जीवा  को  देखा  तो   मारे  डर  के   उसका  मुंह    सफ़ेद   पड़  गया  --जीवा  भी कम  हैरान   न   था  ! उसने  भी उस  लड़के   को  देखते   ही  पहचान  लिया ----'  अरे  !  ये  तो  अपना  कलुआ है  ---रामदीन  का    बेटा   ---- जो  बचपन  से  ही   उसके   ढ़ोल   के  पीछे  पड़ा    रहता  है ''--- लाजो का  उसके  प्रति   गहरा  लगाव  था क्योंकि  कलुआ  की  माँ   का   स्वर्गवास-  तभी    हो गया    था-  जब   वह   मात्र    दो  साल  का   था |पिता  की   दूसरी   शादी   के  बाद  सौतेली   माँ    के  दुत्कार   भरे   व्यवहार  का  मारा  वह  लाजो   की  ममता    के  आँचल    में  आ  छुपता  |पर  उसे  कलुआ  कभी   फूटी  आँख   ना  सुहाया  था --क्योंकि  वह  अक्सर   खूंटी   पर  टंगे  या  फिर नीचे  रखे   ढोल  पर  अपना   हुनर  दिखाने से  बाज  ना  आता  था  ! कभी  शरारतवश  ढ़ोल पर   हाथ  मारकर  भाग  जाया   करता-  तो  कभी   ढोलकी  गले  में  डाल  कर   भाग  जाने   का   उपक्रम    कर   उसे  सताता ---  यह  देख  वह  गुस्से  में  उसे   गाली  देकर   मारने    दौड़ता   तो  लाजो आग्रह    कर  उसे    रोक  लेती  ---'   बिन  माँ   का  बच्चा  है   -- जाने   दो  |'वह कहती  तो कहीं  ना कहीं  उसे  माता - पिता  हीन अपना  बचपन  याद आ  जाता  और   वह  करूणावश  खुद   को   रोक    लेता   | अब   कलुआ   सत्रह   साल  का   नौजवान    था  |कलुआ   जीवा    से   बहुत  डरता   था , संभवतः इसी वजह  से  उसने  कभी जीवा  से  ढोल  सीखने  की   हिम्मत   ना   की थी |वह  भी  तो   अपने  इस  समर्पित  शिष्य   को , इतने  पास   होते  हुए  भी   पहचान ना  पाया ! आज  उसकी  सधी  ताल  ने जीवा   के  मन  को  झझकोर  दिया --वह  नम  आँखों  से   कलुआ  के  डर   से   सफ़ेद   पड़े  चेहरे   को देख  रहा   था | डर  के  मारे  कलुआ  के   हाथों   से   ढोल  की   छड़ी    नीचे  गिर  पड़ी  थी  ,  उसे  लगा  कि  उसे  मार   अब  पड़ी  -  तब  पड़ी !उसने   कांप  कर  आँखे   बंद    कर   ली !  पर  ये  क्या ?--जीवा  ने  उसके  कंधे  को  पकड   कर  हिलाते  हुए रुंधे  गले  से  कहा  ---'कलुआ !  रुक   क्यों   गए  ?--  बजाओ    ना  !' कलुआ  को  मानो  अपने  कानों  पर  विश्वास  ना  हुआ  !  वह  आँखें   खोलकर   अविश्वास   से जीवा  की  तरफ  देखने  लगा   और  जीवा  की  नम आँखों  की  सहमति  पाकर  उसने   नीचे  झुककर  छड़ी   उठाई और  ताल   ठोक  दी   ! जीवा  इस  ताल  की  लय  में  खोता  जा  रहा  था   ! उसका रोम - रोम  पुलकित   था  और  एक  अनोखे   आनंद की  अनुभूति    कर रहा    था ! इसी   बीच  उसके  हाथों   से  लाठी   गिर  पड़ी  --इससे   पहले  वह  जमीन   पर  गिर  पड़ता   --कलुआ  ने  ढोल  बजाना   बीच  में   ही   रोक   कर   उसे  थाम  लिया  |जीवा को लगा   जैसे  उसे   जीने  का  नया  मकसद   मिल  गया  है  !अब  वह  जीना   चाहता  था ---अपनी  कला  को  सुरक्षित   हाथों  में    सौंपने    के  लिए  ---अब   उसकी  कला  उसके  साथ   नहीं    मरेगी---!


सोचता -- जीवा  कलुआ  के  सहारे  धीरे  धीरे चलता  ,अपने  घर  लौट   रहा   था , जहाँ   हरा-  भरा   नीम  खड़ा था   -- उसके   जीवन  का  एक  और   रंग    निहारने   के  लिए----   !  

  
स्वलिखित -- रेणु
चित्र गूगल से साभार --
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               गूगल से अनमोल टिप्पणी -- 

           
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अति सुंदर जीवा की जिवंत कहानी है आदरणीया, जिसमें गाँव के माटी की महक के साथ ढोलक की खनक यह अहसास कराती है कि हर गाँव में एक जीवा अपनी तन्मयता की धुन बजाकर लोक संस्कृति को जिलाये हुए था जो अब आधुनिकता के दौर में खूंटी से उतरती जा रही है , मुझे लगा कि यह मेरे ही गाँव का वृतांत है जिसमे कई होनहार जीवा अपनी कलाइयों को ढोलक पर जब भी रखते थे तो उससे निकले हुए स्वर श्रोता गण को मुग्ध कर जाते थे पर आज न वह थाप है न ही अँगुलियों में लचक, अगर कुछ शेष है तो उनकी यादें जिसे आप ने आज जिन्दा कर दिया, बहुत बहुत आभार आदरणीया, नमन आप की लेखनी को

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सोमवार, 27 नवंबर 2017

मेहंदीपुर बालाजी के बहाने से ---लेख --

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इस साल   अक्टूबर की २३  तारीख को राजस्थान  में मेहंदीपुर  बाला जी   जाने का सौभाग्य  प्राप्त  हुआ  | दिल्ली से  मेहंदीपुर के लिए बेहतरीन सडक मार्ग है -- बीच मार्ग  में इस सड़क के - जिसके साथ  - साथ   खूबसूरत  अरावली पर्वत श्रृखंला  है |  क्योंकि  इससे  पूर्व कभी   मैंने राजस्थान  की पावन-  धरा   का दर्शन नहीं किया था अतः मेरे लिए ये यात्रा बहुत रोमांचक थी |  लगभग  छह घंटे  के बाद   मेहंदीपुर   पंहुच गए|   ये  जगह राजस्थान  के दौसा  जिले में पड़ती है | जिसमें  मंदिर दो पहाड़ियों के बीच   की   घाटी  में बसा है | इस मंदिर के विषय में कई किवदंतियां प्रचलित  हैं -- इस  मंदिर को एक हजार साल पुराना बताया  जाता है और  माना  जाता है कि  एक विशाल  चट्टान  में   हनुमान की मूर्ति स्वयं  ही उभर आई थी  इसलिए इसे बहुत ही पूज्य और हनुमान बजरंगबली  का ही  दूसरा  रूप माना जाता है | इस मूर्ति के चरणों में ही  एक पवित्र  जल - कुण्डी है जिसका जल कभी समाप्त नहीं होता |     मानसिक रोगों से त्रस्त और  भूतप्रेत बाधा      से  ग्रसित  लोग इस मंदिर में   हनुमान जी  की  पूजा  के लिए आते है जिनके लिए ये स्थान  बहुत बड़ा तीर्थ   माना जाता है | प्रेत - बाधा  विनाश के बारे में अनेक   कहानियां श्रद्धालुओं के मुंह से सुनी जा सकती हैं |
बहरहाल  मंदिर बहुत ही बड़ा है और दूर दराज के लोगों की आस्था का बहुत बड़ा केंद्र भी है |बड़े उत्साह  और श्रद्धा से मंदिर तक पंहुचे - पर वहां जाकर    मंदिर  की  अव्यवस्थाएं  देख मन को  बहुत  दुःख पंहुचा | इतने विख्यात  मंदिर    में श्रद्धालुओं  की सुविधा के नाम पर  कुछ भी नजर नहीं आया |  दूसरे इंतजाम तो  छोडिये  -   इतने बड़े मंदिर में   दिन रात में पानी पीने तक की व्यवस्था  नहीं थी | आज भारत  में यत्र -तत्र --सर्वत्र  स्वच्छता  का उद्घोष  सुनने को  मिलता है पर इतनी महत्वपूर्ण  जगह पर  सफाई  नाम की कोई   चीज नहीं  थी   | मंदिर के आसपास  की नालियां खुली और पालीथीन से भरी थी |   दूर दराज के   देहाती इलाकों से आये  भोले -  भाले श्रद्धालु तो कहीं भी  ठहर  जाने को मजबूर   देखे गए |  श्रद्धालुओं  द्वारा  चढ़ाये गए झंडे  और  प्रसाद  को समेटने   की मंदिर की ओर से कोई   व्यवस्था  नहीं  है --इसलिए  वे जगह  - जगह बिखरे पड़े  रहते हैं |   श्रद्धालुओं को  हनुमान जी मूर्ति तक पहुँचने के लिए    मंदिर के  भीतरी प्रांगण मे  रेलिंग से बने   कृत्रिम  लम्बे रास्ते से गुजरने की व्यवस्था की गयी है |इस रास्ते  के बीच में   एक बहुत ही दमघोटू  जगह भी  आती  है  जो  स्वास्थ्य के लिए किसी भी तरह  हितकर नहीं है | मंदिर में  जल - कुण्डी  से जल का छींटा देने की प्रक्रिया में   विशाल  भीड़ में  भगदड़  की आंशंका बनी रहती है  -जिससे निपटने  के लिए कम से कम हमारे सामने  तो  वहां उपस्थित  पुलिस  ने कोई तत्परता  नहीं दिखाई और हर समय  किसी  अनहोनी की आशंका से मन डरता रहा | |   इस  मंदिर की व्यस्था के  समस्त अधिकार  एक महंत किशोर  गिरी  जी के पास है जिन्होंने मंदिर  की बदौलत   बालाजी में एक चिकित्सालय और अन्य कुछ  समाजोपयोगी  काम संभाले  हुए है  |   यहाँ   मंदिर  की  आस्था  पर प्रश्न  करना  मेरा  लक्ष्य  नहीं  |  पर वहां जाकर     पैरों के नीचे  कुचले   जा रहे  चढ़ावे  को देख कर मेरा मन जरुर आहत हुआ | इसके साथ ही मुझे  हरियाणा में एक लोकदेवता  की पूजा के दौरान पूरी -- गुलगुले  के चढ़ावे  का स्मरण  हो आया  जिसके  ऊँचे ढेर  पर से लोग  गुजर रहे थे और प्रसाद   की महिमा  को ध्वस्त कर  रहे थे  | अपने शहर और अनेक जगहों  पर मैंने अनगिन बार  इस प्रकार  प्रसाद के नाम पर  ढेरों पकबान  बर्बाद  होते  देखे |  घर से लोग इतनी श्रद्धा से ये प्रसाद  बना कर  लाते हैं  पर मंदिरों में इस चढ़ावे  की जो  दुर्गति  होती है उससे  प्रश्न उठता  है कि अंध परम्पराओं के नाम पर  इस प्रसाद के रूप अन्न  की बेकद्री और  बर्बादी कब तक होती रहेगी ? वह भी उस  दशा  में जहाँ  हर रोज हजारों लोगो  के भूख से मरने की ख़बरें आती हों |यदि यही  चढ़ावा गेंहू या चावल अथवा सूखे  आटे के रूप में  सुघढ़ता  से संग्रहित  किया जाता तो   हजारों लोग महीनों  इस चढ़ावे के अनाज से    अपना  पेट भर सकते थे   | इससे  ज्यादा सदुपयोग इस चढ़ावे  का क्या होता ?   दूसरी  ओर चढ़ावे के रूप में चढ़ाई गयी  सामग्री  के रूप में  रोज  सैकड़ों टन  कचरे  का क्या हो ??  ये झंडे , फूल , नारियल , मौली , दिए  व अन्य सामग्रियां   नदियों में प्रवाहित हो कब तक   निर्मल जल  धाराओं  को  मलिन करते रहेगें और पर्यावरण प्रदूषण में अपना अहम् योगदान देते  रहेंगे  ?  |इनके  अन्य सार्थक ढंग  से निपटान पर ध्यान दिया जाना अति आवश्यक है | धर्म के नाम पर यदा - कदा  म्यान में से  तलवार खींचने  वाले धर्मावलम्बी क्यों धर्म के इन परम्परागत तरीकों  में सुधार की  किसी   पहल में रूचि नहीं दिखाते  ? उन्हें क्यों नहीं लगता   अब इन व्यवस्थाओं में त्वरित सुधार  अपेक्षित है जो उनकी पहल से बड़ी सहजता से  हो सकता है | ये मंदिर  और अन्य धार्मिक स्थल अन्न , दूध फल इत्यादि  की बर्बादी का  मुख्य केंद्र है | यदि सामग्री  को  मंदिर में  सूखे रूप में चढाने का प्रावधान कर दिया जाए  यह   अनगिन भूखे   लोगों की  भूख  को तृप्ति दे सकता है  |  बहुत से मंदिर या धार्मिक स्थल ऐसा करते भी है  |  वैष्णो  देवी मंदिर  परिसर में इस तरह का चढ़ावा वर्जित  है |  दूसरी  ओर गुरूद्वारों की व्यवस्था सराहनीय   है ,  जहाँ चढ़ावे का उपयोग  निरंतर चलने वाले  लंगर के रूप  में  किया जाता  है  और  हर दिन असंख्य लोग  लंगर में  भोजन  ग्रहण  करते हैं  |  वहां  अन्न की बर्बादी नहीं होती , बल्कि उसका सदुपयोग होता है | गुरुद्वारा परिसर स्वच्छता के लिए भी आदर्श जगह है |   माना हिन्दू धर्म में  चढ़ावे का बड़ा महत्व है  पर  ईश्वर  चढ़ावे  के स्वरूप से  नहीं  बल्कि  भाव के भूखे होते हैं | मानव   सेवा को   भी प्रभु सेवा के  समान   माना गया  है  अतः हमें ये बात मन से निकालनी होगी कि भगवान  दिखावे के चढ़ावे से ही खुश होगें |  मंदिरों अथवा  दूसरे धार्मिक महत्व की जगहों पर श्रद्धालुओं  की सुविधाओं की व्यवस्था  करना भी  जरूरी है | सुविधाविहीन  बड़ी इमारतें खडी करने की  बजाय  इनके प्रांगण में दूसरी व्यवस्थाओं  पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए    ताकि  धार्मिक यात्रा से लौटकर कोई श्रद्धालु आहत  ना हो जैसा कि  हम  लोग अपने शहर  से बालाजी तक की  आठ  सौ  किलोमीटर  की यात्रा से लौट कर हुए |


चित्र - गूगल से साभार 

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बुधवार, 22 नवंबर 2017

तुम्हारी आँखों से ----- कविता --


तुम्हारी  आँखों से  --

तुम्हारी आँखों से छलक रही है 
किसी की चाहत अनायास  ,
जो भरी हैं पूनम जैसे उजास से  ;
और हर पल चमकती हैं  
अँधेरे में जलते दो दीपों की मानिंद  
जो बह रही है  
तुम्हारी बेलौस   हँसी , के जरिये 
किसी निर्मल और निर्बाध निर्झर सी ! ! 

किसी के सर्वस्व समर्पण ने , 
महका दिया है 
तुम्हारे अंग - प्रत्यंग को ,
तभी तो तुम्हारी देह  
नज़र आती है हरदम 
किसी खिले फूल सी ---- ! ! 

ये चाहत सम्भाल रही है  तुम्हें ,
जीवन के हर मोड़ पर  
अपनी सीमाओं में बंधी तुम ,
भटकने -बहकने से दूर
बही जा रही हो  
सदानीरा नदिया सी 
मचलती और हुलसती-- 
गंतव्य की और ----- ! !

ये चाहत फ़ैल रही है -
यत्र - तत्र - सर्वत्र ---
सुवासित चंचल पवन की तरह ----
बन्धनों से मुक्त हो ----!! 

सच तो ये है  
कि तुम्हारे भीतर  समा चुका है
किसी और का अस्तित्व -- ;
और दो आत्माएं  
 हो  चुकी हैं एकाकार  !! 

 स्वरचित -- रेणु  --
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G प्लस से साभार----- अनमोल टिप्पणी -- 
 Mahatam Mishra's profile photo
कल्पना का सागर लहरा दिया आप ने आदरणीया, बहुत सुंदर वाह वाह तुम्हारी आँखों से !!!!!!!
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शुक्रवार, 17 नवंबर 2017

सुनो जोगी !------- कविता -

ये  तुमने  कैसा  गीत  सुनाया   जोगी ?
जिसे  सुनकर  जी भर आया  जोगी |
ये दर्द  था कोई  दुनिया  का 
या  दुःख अपना  गाया  जोगी ! 

अनायास  उमड़ा आँखों  में  पानी ,
कह  रहा   कुछ  अलग  कहानी |
तन  की  है ना  धन  की  कोई ,
 है कहीं गहरी  चोट रूहानी |
माथे  की   सिलवट  कहती  है   
 कहीं नीद न  चैन  पाया  जोगी !

किस  आसक्ति  ने  बना  दिया तुम्हें ,
 जग-भर  से  विरक्त  जोगी ? 
कौन  संसार  बसा  तुम्हारे  भीतर 
तुम  जिसमें   हुए  मस्त  जोगी ?
किस  दुःख  पहना  भगवा  चोला  
क्यों कोई और रंग  ना  भाया जोगी ?

किसकी यादों  के  हवन  में  नित 
 तन  और  प्राण   जलाते  हो ?
किस  बिछुड़े  की  पीड़ा में,
यूँ  दर्द  के  सुर   में   गाते  हो ?
 क्यों  लरज़े  सुर सारंगी के   ?   
 स्वर  भी कंपकपाया  जोगी !

क्या   भारी  भूल  हुई  तुमसे ,
जो ये दारुण  कष्ट उठाया  है ? 
ये  दोष  है कोई  नियति का,
या अपनों  से  धोखा  खाया  है ?
 क्यों  तोड़े स्नेह-ममता  के  रिश्ते ?
छोड़ी सब जग  की  माया  जोगी !

 क्यों  चले अकेले  जीवनपथ पर ?
 साथ लिया  ना कोई  हठ कर  ?
तोडी  हर  बाधा रस्ते  की ,
ना  देखा  पीछे  कभी  भी  मुड़कर |
बिसरी  गाँव-गली  की  सुध- बुध 
हुआ अपना देश पराया जोगी !!

बुल्लेशाह  की  तू  कहे  काफ़ियाँ,
 गाये  वारिस  की  हीर  जोगी | 
  दिल  का  ही  था  किस्सा  कोई 
 जो राँझा  बना   फ़कीर  जोगी |
 इश्क़ के  रस्ते  खुदा  तक  पँहुचे,
 क्या तूने  वो  पथ  अपनाया  जोगी ?
ये कोई  दर्द  था  दुनिया  का , 
या दुःख   अपना गाया  जोगी !!

 
गूगल प्लस से अनमोल टिप्पणी --
Mahatam Mishra: ये तुमने कैसा गीत सुनाया जोगी -जिसे सुनकर जी भर आया जोगी , बहुत ही सार्थक भाव  प्रस्फुटित उद्भार आदरणीया वाह वाह और वाह, जोगी जी वाह!!!!!!!
shail Singh:
वाह अद्द्भुत रचना ,जोगी की अन्तर्व्यथा का आख्यान बहुत ही मार्मिक चित्रण !


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मंगलवार, 7 नवंबर 2017

आँगन में खेल रहे बच्चे ,-----बाल कविता ---







आँगन  में खेल रहे  बच्चे  ,
भोले- भाले मन के सच्चे !

एक दूजे के कानों में -
गुपचुप  से बतियाते हैं   ,
तनिक जो हो  अनबन आपस में  
खुद मनके गले मिल  जाते है  ;
भले- बुरे  का फर्क   ना जाने
बस हैं  थोड़े अक्ल के कच्चे !
आँगन  में खेल रहे बच्चे  !!

निश्छल  राहों के ये राही 
भोली  मुस्कान से जिया  चुरालें ,
नजर- भर देख ले जो इनको
बस  हँस के गले लगा ले ;
अभिनय नहीं  इनकी फितरत
जो मन में वो ही मुखड़े पे दिखे !
आंगन  में  खेल रहे  बच्चे !!

इन नन्हे  फूलों  से  आज 
ये आँगन  का उपवन  महक रहा है ,
 सूना  और वीरान था पहले 
अब कोना - कोना  चहक रहा है ,
कौतूहल से भरे ये चुन- मुन 
मन के कोमल-  शक्ल के  अच्छे !
आँगन में खेल  रहे  बच्चे !!
भोले भाले मन के सच्चे !! 




!

रविवार, 5 नवंबर 2017

अमरुद चुराने आ गई बच्चों की टोली --- बाल कविता |




अमरुद चुराने आ गई बच्चों की टोली ,
 रह- रह पेड़ को ताक रही  - उनकी  नजरें भोली ! 

 हरे भरे पेड़ पर लदे   -फल आधे कच्चे -आधे पक्के  ,
बड़ी ललचाई नजरों से ताके जाते हैं बच्चे ;
कई तिडकम भिड़ा रहे भीतर ही भीतर-
होगे सफल -लग रहे  बड़े   धुन के पक्के ;
देख -समझ ले ना कोई उनकी बाते –
   संकेतों में बतियाते   हमजोली  ! !

कुछ गली में खड़े- दीवार से टेक लगाये ,
एक झुका -- दूजे को  कांधे पे चढ़ाए ;
बाकि   पहरा दे रही चौकन्नी निगाहें –
ज़रा सी आहट पे भाग ले पैर सर पे उठाये ;
बस कुछ पल की बात है काम निपट जाये-
हैं कोशिश में फलों से भर जाये झोली ! !

एक नन्हा बच्चा चढ़ बैठा -मोटी टहनी के ऊपर –
फैक रहा अमरुद तोड़ - नीचे वालों के ऊपर ;
पाया मानों पल में जग भर का खजाना –
लगे समेटने फल बच्चे बडे खुश होकर ;
बड़ी कशमकश में हैं कुछ ज्यादा मिल जाये
जल्द ख़त्म हो जाए ये आंखमिचौली ! !

चुपके से बाहर झाँका तो मेरी आँखें भर आईं -
शुक्र है बच्चों में बचा है बचपन -ये बात मन भाई -
किताबों के बोझ तले दबे थे नन्हे बच्चे -
बाहर निकले कुछ  - इनकी दुनिया मुस्काई ;
चोरी के फल पाकर खिल गए सबके चेहरे -
छोटी सी ख़ुशी ने नन्हे मनों की गांठे खोली !!!!!!!!!!!!!!
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विशेष रचना

पुस्तक समीक्षा और भूमिका --- समय साक्षी रहना तुम

           मीरजापुर  के  कई समाचार पत्रों में समीक्षा को स्थान मिला।हार्दिक आभार शशि भैया🙏🙏 आज मेरे ब्लॉग क्षितिज  की पाँचवी वर्षगाँठ पर म...