नीम के पेड़ से छनकर आती धूप , जैसे ही जीवा के तन को जलाने लगी, हडबडा कर उसकी आँख खुल गई | ना जाने कब से लेटा था -वह नीम की छाँह तले | जब सोया था -तब सूरज घर के पिछवाड़े की तरफ था -अब ठीक नीम के ऊपर चमक रहा है | भादो की चिलचिलाती धूप और उस पर हवा बंद ,आसमान में बादलों का नामोनिशान तक नहीँ ! उमस भरे मौसम में मानो साँस थमी जाती है ! घर के भीतर जब गर्मी का गुबार असहनीय हो जाता है - तो लाठी के सहारे सरकता जीवा इस बरसों पुराने नीम के पेड़ के नीचे आ जाता है और वहां पड़ी खाट पर लेट जाता है , जो बहुधा इस नीम के नीचे पड़ी ही रहती है | इस नीम के पेड़ से उसे इतना लगाव है ,कि किसी ने इसे कटवाने का नाम लिया नहीं कि जीवा से उम्र भर की दुश्मनी मोल ले ली ----------------! !
पतझड़ में धीरे धीरे पत्तों से खाली होता नीम --बसंत में तांबे ,सोने , चांदी - जैसे नए - नए चिकने पत्तों से भरा नीम --फागुन में सफेद फूलों से महकता नीम -- बाद में हरी - पीली निम्बौरियों से लदा नीम --- और सावन के मौसम में बारिश की बूंदों के साथ टपकती पकी -अधपकी निम्बौरियां ----इन सबसे बड़े गहरे से जुड़ा है जीवा ! ! छुटपन से अब तक नीम के पेड़ के साथ उसने ना जाने कितने दुःख सुख सांझे किये हैं --तभी तो , भले ही इस नीम के पेड़ ने उसके घर की कच्ची दीवारों में न जाने कितनी दरारें डाल दी ,पर जीवा ने इस पेड़ को नहीं कटवाया --अब तो घर की पक्की दीवार पर भी दरार का खतरा मंडरा रहा है -- पर अब जीवन के दिन ही कितने शेष बचे है -------जीवा ने गहरी साँस लेकर सोचा ! ! जब से मुए इस अधरंग ने उसे अपाहिज बना पराधीन सा बना दिया है -- तबसे जीवन की चाह ही समाप्त होती जा रही है |वह तो भला हो - लाजो का , जिसने गाँव के मनसुख हकीम का बनाया तेल लाकर - उस तेल से दिन में दो तीन बार मालिश कर- उसे थोड़े ही दिनों में इस योग्य बना दिया कि वह निरंतर खाट पर पड़ा ना रहे | उस तेल की मालिश व लाजो के दिए भावनात्मक सहारे से वह लाठी के सहारे सरकने के योग्य हो गया था .पर जीवन की साँझ में लाजो भी हमेशा के किये साथ छोड़ गई --- सोचते सोचते जीवा का जी भर आया |कुछ महीने पहले ही एक मामूली बुखार लाजो के लिये जानलेवा साबित हो गया |लाजो की मौत पर गाँव के सब लोग कह रहे थे कि लाजो बड़ी किस्मत वाली है जो उस की अर्थी को पति का कान्धा मिलेगा -- वह सीधी स्वर्ग में जाएगी ,पर वह अभागा अपनी क्षीण काया के चलते अपनी उस औरत की अर्थी को कान्धा भी कहाँ दे पाया -- जिसने जीवन के हर सुख -दुःख में उसका साथ दिया और एक मजबूत सहारा बन कर हरदम उसके साथ खड़ी रही | उसने भी लाजो के लिए जीवन की हर ख़ुशी जुटाने में कोई कमी न रख छोड़ी थी, तभी तो उसने अपनी शादी के समय ही लाजो को समझा दिया था कि वह बिरादरी की दूसरी औरतों की तरह घर के बाहर जाकर काम नहीं करेगी , घर में ही रहेगी और घर संभालेगी-- कमाना उसका काम है |लाजो ने भी इस बात को गांठ बाँध लिया था ---जो मिला उसी में गुजारा कर --व्यर्थ की शिकायत कभी नहीं की |
ऐसा नहीं है कि जीवा का कोई नहीं | भरा पूरा परिवार है जीवा का --दो बेटे -दो बेटियां , नाती- पोते , बहुएं और दामाद | दोनों बेटियां अपने घर संसार में सुखी हैं और यदा -कदा उससे मिलने गाँव आती रहती हैं |बड़ा बेटा फ़ौज से रिटायर हो शहर में ही बस गया है |छोटे बेटे को तंग गली के इस आधे कच्चे- आधे पक्के पुश्तैनी मकान में रहना मंजूर नहीं ,जहाँ थोड़ी सी बारिश होते ही पानी भर जाता है - ऊपर से इस छोटे से मकान को आधा तो इस बूढ़े नीम ने ही ढक रखा है , जमीन में जड़ें और ऊपर आधी छत तक फैली इसकी टहनियां ---दूसरें जीवा की इस नीम को न कटवाने की जिद ----! !
ऐसा भी नहीं कि किसी ने जीवा को अपने साथ जाने के लिए ना कहा हो | बड़ा बेटा अक्सर मनुहार किया करता है , कि वह शहर आकर उसके साथ मज़े से रहे ,वहां उसके मकान में कई कमरे हैं-- जिनमें हर तरह की सुख सुविधा है , पर वहां जाकर जीवा का दम घुटता है |एक बार बीमारी के दौरान , जब उसे कुछ दिन शहर में रहना पड़ गया , तो वह अपने गाँव लौटने के लिए बेचैन हो गया , इस पर बेटे को उसे तत्काल गाँव छोड़ने आना पड़ा |छोटा बेटा भी हर रोज बच्चों के साथ उससे मिलने आता है | उसने गाँव के दूसरे सिरे पर ही तो मकान बनाया है |छोटी बहू हर दिन आकर घर की साफ - सफाई कर जाती है और समय पर नाश्ता , खाना इत्यादि दे जाती है | कुल मिलाकर जीवन में कोई कमी नहीं - पर उदासी है कि जीवा के मन से जाती ही नही ! मन अक्सर बीते समय को याद करता रहता है - वह फिर से अतीत की गलियों में भटकने लगा था ----------------
शादी के कई साल बाद जीवा की माँ को जब संतान का सुख प्राप्त हुआ , वह भी गाँव के बूढ़े पुजारी बाबा के आशीर्वाद से , तो जीवा की माँ ने नवजात शिशु को बाबा के चरणों में डाल उसके लिए आशीष मांगी | पुजारी बाबा ने बड़े स्नेह से शिशु को उठाकर पुनः उसकी माँ की गोद में डाल दिया और आशीष के रूप में उसे नाम दिया '' जीवन प्रसाद |'' माँ के लिए इतने लम्बे नाम का उच्चारण मुश्किल था अतः उसने अपने बेटे को जीवा कह कर पुकारना शुरू कर दिया , फिर क्या था पूरा गाँव ही उसे जीवा कहकर बुलाने लग गया |जीवन प्रसाद नाम तो केवल कागजों तक ही सीमित रह गया | मात्र छह साल की उम्र में जब माँ -बाप का साया उसके सिर से उठ गया ,तो उसके मामा उसे अपने साथ अपने गाँव ले गए और पढने के लिए गाँव के स्कूल में डाल दिया , पर जीवा का मन पढाई में हरगिज ना लग पाया | वह तो अपने मामा के ढोल की थाप में अटका रहता | मामा का ढोल बजते ही मानो उसके रोम - रोम में स्फूर्ति छा जाती ! जीवा का मानना था कि उसके मामा सरीखा ढोलकिया उसने अपने जीवन में दूसरा नहीं देखा | वह अक्सर लोगों को अपने मामा के ढोल की थाप के किस्से सुनाता | मामा ने बालक जीवा में पढने के प्रति कोई रूचि ना देख कर , उसे उसकी दिलचस्पी का काम सीखाने में ही बुद्धिमानी समझी ताकि वह अपने आने वाले कल में किसी का मोहताज ना रहे |जीवा ने भी अपने मामा से बड़े मनोयोग से ढोल बजाने की बारीकियां सीखी | वह घंटों ढोल बजाने का अभ्यास करता और बजाते - बजाते उस की थाप की लय में खो जाता | सीखने के दौरान ही मामा के साथ -साथ ढोलकिये के रूप में जीवा की शौहरत भी दूर- दूर तक फ़ैल गई | मामा के साथ ढोल बजाते समय उसकी जुगलबंदी देखते ही बनती थी |
ढोल बजाने की कला में पूरी तरह पारंगत हो जाने के बाद , ये हुनर लेकर जीवा अपने गाँव लौट आया |मामा ने दूर के रिश्तेदार की एक सुंदर व सुशील लड़की से उसकी शादी करवाकर उसका घर बसा दिया |अब ढोल बजाना उसकी आजीविका थी |जोश से भरा नौजवान जीवा अपने काम के प्रति पूरी तरह समर्पित था | गाँव में किसी के घर जश्न हो , मंदिर में कोई उत्सव या फिर पीर बाबा की दरगाह की हफ्ते की चौकी या सालाना उर्स हो , जीवा के ढोल की थाप देखते ही बनती थी | लोग उसके ढोल की बहुरंगी ताल में खो जाते और जी खोलकर बख्शीश देते | कई गाँवों के कुश्ती के मुकाबले के दौरान अखाड़े में उसके ढोल के थाप के जोश में लोगों ने कई बार बाजी पलटते देखी थी | जीतने वाले पहवान के समर्थक उसकी जेबें बख्शीश से भर देते , तो भीतर ही भीतर अपने हुनर का सम्मान पाकर जीवा का सीना गर्व से फूल जाता ! गाँव में जब किसी सरकारी या पंचायती फरमान को लोगों तक पहुँचाना होता ,तो जीवा बड़े उत्साह से छोटा ढोल रस्सी के सहारे गले में लटका कर गाँव की हर गली में जाकर बजाता और जोर जोर से चिल्लाता ----सुनो मुनादी वाला क्या कहता है --मुनादी की आवाज़ को ज़रा गौर से सुनना ---आज आपके गाँव में फलां - फलां जगह जलसा है ----सरकारी कैम्प है ---या जो कुछ भी ---इतने बजे वहां पधारने की कृपा करें --तो मुहल्ले भर के लोग घरों से निकल कर --छतों से उतर कर उसके आसपास इकट्ठे हो जाते और उससे कई - कई बार मुनादी के बारे में पूछते चले जाते तो वह भी गर्वीली मुस्कान के साथ -साथ मुनादी के बारे में बार- बार बताता आगे बढ़ जाता -----
उसे याद आया वह काम से जब घर वापस आता , तो वह अपने दोनों बेटों को ढोल बजाने का हुनर देने की बहुत कोशिश करता ,पर न जाने क्यों दोनों ने कभी भी ढोल बजाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई | हाँ कामचलाऊ ढोल बजाना उन्होंने अवश्य सीख लिया था -जिससे उसके गाँव में ना होने या बीमार पड़ जाने पर वे काम पर जा सके - क्योंकि परिवार में आजीविका का एकमात्र यही साधन था |वे काम पर चले तो जाते पर मन मारकर ! इस कला के प्रति उनके मन में न तो कोई गर्व था ना उत्साह --- जीवा के मन से एक आह निकल गई ----|वह सोचने लगा कि उन अभागों को ये भी नहीं पता था कि उनके जीवन की हर ख़ुशी में उनके पिता के ढोल की थाप का कितना बड़ा योगदान था ! !-------------
--एक बार जब वह पास के शहर में फ़ौज की टुकड़ी के एक समारोह में ढोल बजाने गया तो फौज - प्रमुख ने उसकी कला को खूब सराहा और उसे कुछ बख्शीश देनी चाही तो उसने बिना समय गंवाए अपने मैट्रिक पास और फ़ौज में जाने की इच्छा रखने वाले बेटे के लिए नौकरी देने का आग्रह किया जिसे जनरल ने सहर्ष पूरा कर दिया |छोटे बेटे ने भी जब गाँव के स्कूल से आंठवी पास कर आगे न पढने की घोषणा कर दी तो जीवा ने उसे बहुत समझाया कि वह जैसे भी हो मैट्रिक तो पास कर ले , पर बेटे ने आगे पढने से साफ़ इंकार कर दिया | कुछ ही दिनों बाद गाँव के मुखिया के बेटे की शादी थी | जीवा के ढोल की थाप पर मुखिया के रिश्तेदार व परिवार के लोग खूब थिरके |इस अवसर पर ख़ुशी में झूमते मुखिया ने जब जीवा को कुछ भी मांगने को , कहा तो जीवा ने बड़ी विनम्रता से अपने छोटे बेटे को काम पर लगाने का आग्रह कर डाला |जीवा की कला के मुरीद मुखिया ने -कुछ दिन बाद ही उसके बेटे को -गाँव के ही सरकारी स्कूल में चपरासी की नौकरी दे दी | आज उसी छोटी सी नौकरी से वह अपने परिवार का पालन-पोषण कर मज़े में था ! जीवा को दुःख था तो सिर्फ ये कि बेटे तो दूर . उसके नाती - पोते भी ढोल से दूर दूर भागते | वे हेय दृष्टि से इस कला को देखते | वह अपने मन की व्यथा अक्सर अपनी पत्नी लाजो के आगे कह सुनाता, तो वह उसे प्यार से समझाती कि बेटे - पोते न सही , कई लोग और हैं जो ढोल बजाने की कला की कद्र करते हैं, क्योकि ढोल -ढोलकी तो सदैव ही समाज में उत्सवो की शोभा रहे हैं और आगे भी रहेंगे अतः जो लोग ख़ुशी से सीखना चाहें -- वह अपनी कला उनमें बांटे ! उसे लाजो की यह सलाह जंच गई और वह ढोल सीखाने की योजना पर काम करने लगा और साथ में समर्पित शिष्यों की तलाश भी |यूँ तो पास के गाँवों से कुछ लोग जरूर उसके पास अक्सर ढोल बजाने की बारीकियां सीखने आते और काम चलाऊ काम सीखकर चले जाते पर अपने परिवार और गाँव में उसे ऐसा कोई भी व्यक्ति न मिल सका जिसे ढोल के बारे में जानने या सीखने की गहरी लगन हो |उसका बस चलता तो वह जीवन भर इस कला को बांटता , पर जिंदगी इसी उहापोह में निकल गई | बीमारी तो उसे दो साल पहले ही आई थी पर जीवन के संघर्षों ने उसे असमय ही बूढा बना दिया था | इसी बीच अपनी सांत्वना से ,उसके दुखते मन पर मरहम रखने वाली लाजो भी उसका साथ हमेशा के लिए छोड़ गई |उसके मन में कसक थी कि उसकी कला उसके साथ ही मर जाएगी |जीवा का मन भर आया और आँखों की कोरें गीली हो गईं |उसे किसी ने बताया था कि उसके बीमार होने के बाद ,जब भी किसी को ढोल बजवाना होता है ,तो ढोलकिया पास के गाँव से ही आता है | अपने गाँव में ऐसा कोई भी नहीं है जो इस काम में माहिर हो |
आज ढोल के सुर खामोश थे ! दो सालों से ढोल बजाने को उसके हाथ तरस कर रह गए थे |जीवा को याद आया ----- कि कितना प्यार था उसे अपने ढोल -ढोलकियों से ! वह अपने ढोल - ढोलकियों को हमेशा सजा कर रखता |उन के ऊपर लाजो के बनाये रंग बिरंगे रेशमी धागों के फूल बांधकर रखता |उनके रखरखाव में कोई कसर ना रखता | जब वह ढोल की रस्सी कसने के लिए छल्ले खींचता , तो मन ही मन मुस्कुराने लगता और कोई सुरीला गाना गाने लग जाता ! उन्हें नियम से धूप में रखता ताकि फफूंदी व सीलन से इनका चमड़ा ख़राब न हो | कभी कोई शरारत से उन्हें छू भी देता तो वह बरस पड़ता --- लेकिन आज ढोल खूंटी पर यूँ ही टंगा था मात्र जीवा की तसल्ली के लिए --हाँ कभी - कभी बच्चों से कहकर इसे धूप में रखवाता ताकि ये उसके जीते जी ख़राब ना हो|--------
जीवा को कानो से कम सुनने लग गया है और आँखों में मोतियाबिंद उतर आया है ,लेकिन आँखों से कम दिखने के बावजूद भी उसे अपने बरामदे की खाली खूंटी दिख ही गई ---जहाँ उसका ढोल लटका रहता था --यह देख वह जोर से चिल्ला पड़ा ---'अरे मेरा ढोल --- कहाँ है मेरा ढोल ?'' तभी कम सुनाई देने के बावजूद भी उसके कानों में ढोल की मध्यम थाप की आवाज आ ही गई |कोई बड़े धीमे -धीमे ढोल बजा रहा था |जीवा ने पहचान ली यह ढोल की वही थाप थी , जो वह अक्सर धार्मिक स्थानों पर बड़ी तल्लीनता से बजाया करता था -जिसे सुनकर लोग रूहानी शांति का अनुभव करते और उसे भरपूर दाद देते | बिलकुल वही सधे हाथ और मंजी हुई ताल --पर कौन है उसका ढोल चुरा कर , इस भीषण गर्मी में उसे बजाने का अभ्यास कर रहा है ? वह बड़ी उत्सुकता और तत्परता से अपनी लाठी के सहारे खाट से उठ खड़ा हुआ और धीरे धीरे लाठी टेकता , सरकता वह आँगन के गली में खुलते दरवाजे से बाहर निकल कर देखने लगा |
धुंधला सा उसे नज़र आया कि कोई गली के मोड़ के पास पीपल के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठा है और मगन है ढोल बजाने में ---न उसे आने जाने वालों की परवाह है ना अपनी सुध --- -- वह खोया है -- ढोल की थाप में --- मध्यम स्वर के चाबुक अनोखी लय में ढोल पीट रहे थे --जीवा धीरे - धीरे उसकी तरफ बढने लगा | उसका दिल जोर जोर से यूँ धडक रहा था -मानो वह कोई परीक्षा देने जा रहा हो --कुछ ही पल बाद वह उस व्यक्ति के पीछे जा खड़ा हुआ , जो पसीने में लथपथ था और समर्पित भाव से अपनी साधना में खोया था | पास जाकर जीवा ने उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह चौंक पड़ा और उसने ढोल बजाना बंद कर दिया | जब उसने पीछे मुड़कर जीवा को देखा तो मारे डर के उसका मुंह सफ़ेद पड़ गया --जीवा भी कम हैरान न था ! उसने भी उस लड़के को देखते ही पहचान लिया ----' अरे ! ये तो अपना कलुआ है ---रामदीन का बेटा ---- जो बचपन से ही उसके ढ़ोल के पीछे पड़ा रहता है ''--- लाजो का उसके प्रति गहरा लगाव था क्योंकि कलुआ की माँ का स्वर्गवास- तभी हो गया था- जब वह मात्र दो साल का था |पिता की दूसरी शादी के बाद सौतेली माँ के दुत्कार भरे व्यवहार का मारा वह लाजो की ममता के आँचल में आ छुपता |पर उसे कलुआ कभी फूटी आँख ना सुहाया था --क्योंकि वह अक्सर खूंटी पर टंगे या फिर नीचे रखे ढोल पर अपना हुनर दिखाने से बाज ना आता था ! कभी शरारतवश ढ़ोल पर हाथ मारकर भाग जाया करता- तो कभी ढोलकी गले में डाल कर भाग जाने का उपक्रम कर उसे सताता --- यह देख वह गुस्से में उसे गाली देकर मारने दौड़ता तो लाजो आग्रह कर उसे रोक लेती ---' बिन माँ का बच्चा है -- जाने दो |'वह कहती तो कहीं ना कहीं उसे माता - पिता हीन अपना बचपन याद आ जाता और वह करूणावश खुद को रोक लेता | अब कलुआ सत्रह साल का नौजवान था |कलुआ जीवा से बहुत डरता था , संभवतः इसी वजह से उसने कभी जीवा से ढोल सीखने की हिम्मत ना की थी |वह भी तो अपने इस समर्पित शिष्य को , इतने पास होते हुए भी पहचान ना पाया ! आज उसकी सधी ताल ने जीवा के मन को झझकोर दिया --वह नम आँखों से कलुआ के डर से सफ़ेद पड़े चेहरे को देख रहा था | डर के मारे कलुआ के हाथों से ढोल की छड़ी नीचे गिर पड़ी थी , उसे लगा कि उसे मार अब पड़ी - तब पड़ी !उसने कांप कर आँखे बंद कर ली ! पर ये क्या ?--जीवा ने उसके कंधे को पकड कर हिलाते हुए रुंधे गले से कहा ---'कलुआ ! रुक क्यों गए ?-- बजाओ ना !' कलुआ को मानो अपने कानों पर विश्वास ना हुआ ! वह आँखें खोलकर अविश्वास से जीवा की तरफ देखने लगा और जीवा की नम आँखों की सहमति पाकर उसने नीचे झुककर छड़ी उठाई और ताल ठोक दी ! जीवा इस ताल की लय में खोता जा रहा था ! उसका रोम - रोम पुलकित था और एक अनोखे आनंद की अनुभूति कर रहा था ! इसी बीच उसके हाथों से लाठी गिर पड़ी --इससे पहले वह जमीन पर गिर पड़ता --कलुआ ने ढोल बजाना बीच में ही रोक कर उसे थाम लिया |जीवा को लगा जैसे उसे जीने का नया मकसद मिल गया है !अब वह जीना चाहता था ---अपनी कला को सुरक्षित हाथों में सौंपने के लिए ---अब उसकी कला उसके साथ नहीं मरेगी---!
सोचता -- जीवा कलुआ के सहारे धीरे धीरे चलता ,अपने घर लौट रहा था , जहाँ हरा- भरा नीम खड़ा था -- उसके जीवन का एक और रंग निहारने के लिए---- !
स्वलिखित -- रेणु
चित्र गूगल से साभार --
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गूगल से अनमोल टिप्पणी --
+1
अति सुंदर जीवा की जिवंत कहानी है आदरणीया, जिसमें गाँव के माटी की महक के साथ ढोलक की खनक यह अहसास कराती है कि हर गाँव में एक जीवा अपनी तन्मयता की धुन बजाकर लोक संस्कृति को जिलाये हुए था जो अब आधुनिकता के दौर में खूंटी से उतरती जा रही है , मुझे लगा कि यह मेरे ही गाँव का वृतांत है जिसमे कई होनहार जीवा अपनी कलाइयों को ढोलक पर जब भी रखते थे तो उससे निकले हुए स्वर श्रोता गण को मुग्ध कर जाते थे पर आज न वह थाप है न ही अँगुलियों में लचक, अगर कुछ शेष है तो उनकी यादें जिसे आप ने आज जिन्दा कर दिया, बहुत बहुत आभार आदरणीया, नमन आप की लेखनी को
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बहुत खूब ! मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंआदरणीय सतीश जी -- सर्वप्रथम आपका अपने ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत करती हूँ | आपने कहानी पढ़ी और कुछ शब्द लिखे जिन्हें पढ़कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई -- ये शब्द अनमोल हैं मेरे लिए इनके लिए आप को सादर आभार और नमन | स्नेह बनाये रखिये |
जवाब देंहटाएंआदरणीय /आदरणीया आपको अवगत कराते हुए अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि हिंदी ब्लॉग जगत के 'सशक्त रचनाकार' विशेषांक एवं 'पाठकों की पसंद' हेतु 'पांच लिंकों का आनंद' में सोमवार ०४ दिसंबर २०१७ की प्रस्तुति में आप सभी आमंत्रित हैं । अतः आपसे अनुरोध है ब्लॉग पर अवश्य पधारें। .................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंप्रिय ध्रुव सस्नेह आभार आपका |
हटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/12/46.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.in/2017/12/46.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआदरणीय राकेश जी --- सादर आभार आपका | मित्र - मण्डली में मेरी रचना को शामिल किया जाना मेरा सौभाग्य है इसके जरिये मेरी कहानी बड़े पाठक वर्ग तक पंहुची है |
हटाएंबहुत ही सुन्दर कहानी....शुरु से अन्त तक समरसता और जिज्ञासा....
जवाब देंहटाएंअतीत से लेकर वर्तमान तक का बखूबी चित्रण एवं कला की जीवन्तता के साथ सुखद भविष्य
को लेकर कहानी का अंत.....
लाजवाब कहानी....बहुत बहुत बधाई आपको रेणु जी !
आदरनीय सुधा जी -- सादर आभार आपका |
हटाएंबहुत ही सुन्दर लाजवाब कहानी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई आपको रेणु जी
प्रिय नीतू जी -- आपका सस्नेह आभार |
हटाएंबहुत सुंदर कहानी, चरित्र भी कितने जींवत,कलुवा..लाजो मुख्य पात्र जीवा उसकी मनोस्थिति..लाजो का ममतामई व्यवहार सारा कुछ सरल भाषा शैली के साथ आपने प्रस्तुत किया .... बहुत ही प्रभावशाली प्रयास ... बधाई हो आपको..!!
जवाब देंहटाएंप्रिय अन्नू -- आपके उत्साहवर्धक शब्दों और कहानी की गंभीर विवेचना से अभिभूत हूँ | ये मेरे लेखन की सार्थकता को दर्शाता है | आशा है ये स्नेह सदैव यूँ ही बना रहेगा |
हटाएंजीवन के कई रंगों को सजीव करती कहानी
जवाब देंहटाएंकहानी का भावपूर्ण पक्ष बहुत कसा हुआ है जिससे कहानी कहीं भटकाती नहीं है.
बहुत सुंदर और सहज कहन
अंत उत्साहपूर्ण
प्रभावी कहानी के लिए बधाई
आदरणीय ज्योति सर -- सादर प्रणाम | मेरी कहानी पर आपकी सर्वांग समीक्षा मेरे लिए बहुत बहुत प्रेरक है | आपने इस पर अपना सकारात्मक पक्ष रखा जिसके लिए आपकी हार्दिक आभारी हूँ | मेरे शौकिया लेखन पर आप जैसे विद्वानों की दृष्टि पढ़ना इसकी सार्थकता है | सादर ,सस्नेह नमन --
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मार्मिक कहानी रेनू जी ... शुरू से अंत तक बांधे रखा
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका |
हटाएंबहुत सुंदर कहानी है रेणुजी,एक ही बार में पूरा पढ़ गई मैं...
जवाब देंहटाएंआदरणीय मीना जी --- बहुत आभारी हूँ आपकी |समयाभाव में कहानियाँ कम लिख पाती हूँ पर मेरे गाँव के जीवा बाबा की इस कहानी को बहुत ही उत्साह से पढ़ा सबने | सबकी आभारी हूँ | आपके पढने से ये ख़ुशी दुगुनी हो गयी |
हटाएंबेहतरीन संवेदना से भरपूर.
जवाब देंहटाएंआदरणीय सुभाष जी--- विलंभ से प्रतिउत्तर के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ |रचना पर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार आपका |
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