फागुन मास में उस साल
मेरे आँगन की क्यारी में ,
हरे - भरे चमेली के पौधे पर
नज़र आई थी जब ,
शंकुनुमा कलियाँ
पहली बार !
तो ,मैंने कहा था कलियों से चुपके से
"कि चटकना उसी दिन
और खोल देना गंध के द्वार ,
जब तुम आओ !''
आकाश में भटकते ,
आवारा काले बादलों से गुहार
लगाई थी मैंने ,
'' हलके से बरस जाना !
जब तुम आओगे,
और शीतलता में बदल देना
आँगन की उष्मता की हर दिशा को - - -''
अचानक !एक दिन खिलखिलाकर
हँस पड़ी थीं चमेली की कलियाँ ,
और आवारा काले बादल
लग गये थे - --
झूम - झूम कर बरसने !
देखा तो, द्वार पर तुम खड़े थे
मुस्कुराते हुए !
जिसके आने की आहट
मुझसे पहले
जान गए थे ,
अधखिली कलियाँ और आवारा बादल ,
जैसे चिड़ियाँ जान जाती हैं
धूप में भी आने वाली
बारिश का पता
और नहाने लग जाती हैं
सूखी रेत में--------- !!
स्वरचित --रेणु
कृष्ण राघव
15 फरवरी 2017