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सोमवार, 14 अगस्त 2017

सूर के श्याम ---------- जन्माष्टमी पर विशेष

Image result for कृष्ण भगवान के चित्र

 भारतवर्ष के  सांस्कृतिक ,सामाजिक  और  धार्मिक   जीवन  का  एक अक्षुण  अंग  हैं  राम और  कृष्ण | राम जहाँ  मर्यादा  पुरुषोत्तम  है - तो  वही कृष्ण  के  ना  जाने  कितने  रूप  है  | श्री कृष्ण   को सम्पूर्णता का  दूसरा  नाम  कहा  गया  है| वे   चौसठ कला  सम्पूर्ण     माने  गए हैं  |सभी  ललित कलाओं  के  केंद्र  बिंदु  श्री  कृष्ण   ही रहे हैं   | वे योगेश्वर  हैं-   तो  रसेश्वर  भी  हैं | |   श्री  कृष्ण  के व्यक्तितव का विराट दिव्य  तत्व - जन   मानस को  सदियों  से आंदोलित  करता   आया  है|   उस की   दिव्य  आभा  में  ना  जाने  कितने   भटके    पथिको  ने  अपनी मंजिल पायी है  |   श्री  कृष्ण   एक  चंचल बालक  से लेकर  एक  कुटनीतिक      परामर्शदाता से  के साथ- साथ   एक   अच्छे  मित्र , समर्पित  प्रेमी , एक उत्तम गृहस्थ ,  विरल  योद्धा और  सामाजिक  चिन्तक आदि अनेक रूपों  में  हमारे सामने  आते  हैं | एक  माता - पिता  से जन्म  का  संबध  तो  दुसरे पालक  माता - पिता  के  साथ   वात्सल्य   का  अनूठा  रिश्ता  !!
 जन्म  से  पहले ही  अनेक  षड्यंत्रों की छाया में  जन्म कहीं-  तो   जन्म के बाद  पालन   पोषण   कहीं  और   !!  ना जाने कितने   कवियों , साहित्यकारों  और इतिहासकारों  ने  श्री कृष्ण   को प्रेरणा  मान कर  अनेक   ग्रन्थ रचे | भक्तिकाल के  कवियों  में  सूरदास  ने  तो  श्री  कृष्ण  के  जीवन  के अनेक  रूपों   का अपनी  रचनाओं  में  अत्यंत  सजीव  वर्णन  किया  है |  कहा  जाता  है  कि  सूरदास  जी जन्म  से  देख पाने  में  असमर्थ  थे  ,  फिर  भी  उन्होंने  अपनी  दिव्य  दृष्टि  से श्री कृष्ण  के  जीवन  को निहार  कर      अपनी रचनाओं  में   उनके   जीवन  की अनेक  सुंदर   सजीव   झांकियां  प्रस्तुत  की  |  उनका बाल - रूप वर्णन तो बेजोड़ है  ही  - साथ ही   गोपियों  के  विरह  को जो  उन्होंने   शब्द प्रदान किये  उनका साहित्य  में कोई   सानी   नहीं  है | सूर की  रचनाओं  में     कृष्ण   के जीवन की  अनुपम झांकी  सजी है |  उनके  साहित्य  में  मधुरता  की   धारा  बहती है क्यो कि श्री  कृष्ण   उनके परम आराध्य   है और वे  अपने  इस  इष्ट  देव  के  अनन्य  भक्त !! बाल कान्हा  के  सहज सुदर  रूप  का  वर्णन  करते  उनके अनेक पद साहित्य की कालजयी  धरोहर  है |
 उनके  पदों  में   वर्णित  कान्हा   अपनी   अनूठी   बाल  सुलभ  चेष्टाओं  के  कारण   एक सुंदर  छवि  धारण  कर  हर व्यक्ति  के  मन में ऐसी  जगह  बना  लेते  हैं  कि हर कोई      सृष्टि के   इस  विलक्षण   बालक के  साथ सदैव के लिए    अपनेपन   के सूत्र  में बांध  जाता है  |माखन  चोरी करते , माँ  से  रुठते ,शिकायत  करते , गोपियों के साथ  रास  रचाते  कान्हा   के   अनगिन  मनोहारी     चित्र   सजे  हैं  | सूरदास  श्रृंगार रस के   कवि  थे |  उन्होंने संयोग  और वियोग  दोनों   तरह के  भावों  को  बड़ी  मधुरता  के साथ  प्रस्तुत  किया  है | सूर के बालकृष्ण  के जीवन  के कुछ  चित्र देखिये  ----------------
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥
सुर दास जी ने   बालक   कृष्ण  को   पालने    में  झुलाती माँ  यशोदा  के साथ बाल कृष्ण   की शयनावस्था   का मनोहारी चित्र प्रस्तुत  किया  है|  वे  कहते हैं;;कि  हरि को  माँ यशोदा पालने  में  झुलाती है --पालना हिलाती है -- नन्हे कान्हा  को दुलारती है --कभी उनका  मुख  चूमती  कुछ  गाने लगती हैं  |  फिर शिकायत करती  हैं कि  क्यों  नींद  मेरे  लाल को   सुलाने   नहीं आती अर्थात  माँ  की  इतनी  चेष्ठाओं  के बाद  भी  कान्हा  अभी तक जगे हैं | फिर  कह्ती  हैं  - कि अरी  निदिया     तुझे   कान्हा बुलाता  है-- तू  आ  क्यों  नहीं  जाती ? कन्हैया  अभी भी  कभी पलके मूंद लेते  हैं -  तो कभी  होंठ  हिलाने लगते  हैं  | हरि  को सोया जानकर  वे  चुपचाप  संकेतों  से  बात  करती  हैं,  फिर  भी  कान्हा  अकुलाकर  उठ  जाते  हैं और  माँ  यशोदा फिर  से मधुर  स्वर  में  गाने  लगती  हैं | सूरदास  जी माँ  यशोदा  के भाग्य  की सराहना  करते  हुए कहते हैं  कि नन्द  की  पत्नी अर्थात यशोदा को जो  सुख   मिला है वह तो  देवों  और   मुनियों  के लिए  भी दुर्लभ  है  |
एक अन्य  पद में सूरदास  जी लिखते  है कि--------
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
अर्थात हरि  हाथ  में  मक्खन   लिए   शोभायमान हो रहे  हैं |  अभी   बस  घुटनों  के  बल ही चल  पाते हैं  अर्थात  बड़े छोटे  हैं  | उनका  तन  धूल  में  लिपटा  है  तो मुंह दही में सना है  |   गाल   बड़े  सुंदर  और  आँखे  बड़ी  चंचल हैं | वहीँ  माथे  पर  गोरोचन  का  तिलक   लगा  है | बालों  की   लट   कपोल   को  छूकर   इस तरह  निकल रही  है  मानों भँवरे  रस पीकर मतवाले  हो  गए   हों   | उस पर  गले में  पड़े  सिंह नख  का कंठहार - प्रभु  के बाल  रूप के  सौन्दर्य  को कई गुना  बढ़ा  रहा  है | अंत में सूरदास  जी  कहते हैं  कि प्रभु  के इस  रूप को निहारने  का  एक पल  का  सुख  भी  कई  सौ  कल्प  जीने  के  सुख  से कहीं  बढ़कर  है |
एक और पद  में भक्त शिरोमणि  सूरदास  जी ने बालक   कृष्ण   के बेजोड़ रूप  का चित्र  खींचा  है  जिसमे  हरि माँ  यशोदा दे  बड़ी ही  बाल  सुलभ  शिकायत करते  नजर आते  हैं   --    पूछते   हैं कि
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी  ?
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
काढ़त ,गुहत ,न्हवावत -जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
अर्थात  ' 'मैया   ये  मेरी चोटी कब  बड़ी  होगी ? कितनी बार तू मुझे दूध पिलाती  है पर ये  है  कि   अब  तक छोटी की छोटी  ही  है | तू तो कहती  थी  कि  ये  बलराम की  चोटी  जैसी खूब  लम्बी मोटी  हो जायेगी  ,  इसके  लिए  तू  नित्य प्रति  मुझे  नहलाकर  बालों  को संवारती  है  चोटी में गुंथती है  ताकि  ये बड़ी  होकर  भूमि  पर  नागिन  जैसी  लोटने  लगे   -इसी  लिए तू  मुझे रोज  कच्चा  दूध  पिलाती  है और  माखन रोटी  खाने को  नहीं देती है '' [ जो  कि  श्री  कृष्ण  का  प्रिय आहार  है  ]सूरदास  जी  कहते  हैं कि तीनों  लोकों  में   कृष्ण -  बलराम  की जोड़ी  मन को हर अनंत  सुख  देने  वाली  है |  इस पद में बाल कृष्ण  का  सरस वार्तालाप   मन  को आलौकिक सुख प्रदान   करता  है  |
अन्य  पद  में  भी  सूरदास  जी बाल  मन   का  मनोवैज्ञानिक  चित्रण  कर    कन्हैया की   माँ  से शिकायत  को बड़े  ही   मीठे  शब्दों में पिरोया  है  | बाल  कृष्ण  माँ को  कहते हैं कि---
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
अर्थात '' माँ  मुझे  दाऊ  अर्थात बलराम  बहुत  चिढाता है  |  मुझसे  कहता  है  कि तुझे  माँ  यशोदा  ने  जन्म नहीं दिया  बल्कि  मोल लिया  है  | क्या  कहूँ  इसीदुःख  के  कारण  मैं खेलने  भी नहीं जाता  हूँ | वो  मुझसे  बार  बार  पूछता  है कि कौन  तुम्हारी माता  है और  कौन  पिता ? वह कहता  है ,  कि नन्द  बाबा और  माँ  यशोदा  दोनों  गोरे  रंग  के  हैं  फिर  तू  कहाँ  से   सांवले  शरीर वाला  है ?   जब  सब  ग्वालों के  आगे  वह  यह  बात पूछता  है तो  वे   सब   भी चुटकी  देकर  हँस| ते   ,   नाचते हैं  और  मुस्कुराते  हैं  | तू भी  मुझी  को  मारना  सीखी  है  ,  इस  बलराम   पर  कभी भी  नहीं खीजती   '| ' माँ  यशोदा   कान्हा     की ये  रोष भरी  बातें  सुनकर  उस  पर रीझती  हुई   कहती  हैं  --'' कि सुनों कान्हा ! बलराम  तो जन्म  से  ही  चुगलखोर  और   धूर्त  है  अर्थात  वो झूठ  बोलता है | '' सूरदास जी  कहते  हैं कि प्रभु  को  विश्वास  दिलाने  के लिए  माँ  यशोदा कहती  है  की उन्हें गोधन  की  सौगंध  है  -   कि  वे  कृष्ण  की जननी और  वे  उनके  पुत्र  हैं  |
सूरदासजी  अपने एक अन्य  प्रसिद्ध  पद  में बालक कृष्ण  के  माखन चोरी में पकडे  जाने  पर  उनकी  बाल सुलभ  सफाई  को  बहुत  ही  भाव स्पर्शी शब्दों  में  पिरोया  है| नन्हे   कान्हा   द्वारा  दी   गयी  इस सफाई   को  सुनकर  सुनने  वाले    नन्हे  कन्हैया  के भोलेपन के  प्रति अनायास  ही  आकर्षित  हो  जाते  हैं     |  सुरदास  जी  लिखते  है -------
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥

कान्हा  बड़ी  ही  मासूमियत  से  स्वयं  को  निर्दोष   बताते  हैं ''कि   मेरी मैया मैंने  माखन  नहीं  खाया  है | ये बाल सखा मेरे बैरी हो  गए  हैं  जिन्होंने  मेरे  मुख  पर जबरदस्ती  ये  माखन  लगा दिया  है|  तू ही देख तूने  छींका  कितने  ऊपर  लटकाया है
| तू    बता  मेरे  इन   नन्हे  हाथों से  मैं  ये  सब  कैसे  कर सकता  हूँ ? ''  ये कहकर  अपने  मुंह   से  माखन  पोंछ कर  कान्हा  -माखन का दोना  अपने  पीछे छिपा लेते  हैं | माँ  यशोदा-  जो कान्हा को  पीटने  के  लिए  छड़ी लिए  खड़ी हैं --ने  छडी फैंक  दी और  कान्हा  के  भोले   उद्गारों को सुन   मुस्कुराते  हुए  नन्हे  श्याम को  गले  से  लगा  लेती  हैं |  सूरदास   जी  कहते  हैं  कि जो सुख  यशोदा  को  मिला  है  उसे शिव और  ब्रह्मा  भी  नहीं  पा  सकते |

बाल लीला  के साथ साथ  सूरदास  जी  ने   गोपियों  के  विरह  को  बहुत  ही गहराई  से  समझ  उनके  अंतस की  पीड़ा  को बड़े  ही  मार्मिक  शब्दों  में   व्यक्त  किया
 | जब  बलराम  के    श्री  कृष्ण  मथुरा  च ले  गए  तो  विरह  में  डूबी   गोपियों   को  समझाने  के  लिए   उधो  जी को  भेजा  जाता है  -- उस समय  रोष  से  भरी  गोपियाँ   उन्हें खरी  खरी सुनाती  है  और  कह  उठती  हैं -----
उधो  मन   नाहि दस  बीस -
एक हुतो  सो गयो श्याम संग
को अवराधै ईस॥
आगे  वे कहती हैं
निशदिन  बरसात नैन हमारे
सदा  रहत  पावस  ऋतू हम  पर
जब  ते श्याम सिधारे  |
असल  में सूरदास   ने  ज्ञान  और  वैराग्य  तत्व  से  कहीं  अधिक  महत्व   प्रेम  तत्व  को दिया  है |  भले ही उन्होंने  अपने  काव्य  में  विरहणी  गोपियों  की  वेदना  को  शब्द  दिए हैं  पर  उनका उद्देश्य   श्याम  के  प्रति  प्रेम  का  ऊँचा  मूल्याङ्कन  करना  ही  था-  जिसमे वे   सफल  हुए  हैं  | सच  तो  ये  है कि  सूरदास और श्याम  सलोने  एक   मजबूत  डोर से बंधे  हैं  -  और अपनि रचनाओं के  माध्यम से  वे    अपने आराध्य को  मानव स्वरूप में  ढालने  में  सफल  हुये हैं |
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19 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर आलेख। जन्माष्टमी की असीम शुभकामनाएँ।

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    1. आदरणीय पुरुषोत्तम जी -- आपको भी हार्दिक शुभकामनायें और आभार |

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  2. ".....पूर्णस्य पूर्णं आदाय, पूर्णमेव अवशिष्यते " ये पंक्तियाँ सुर के महाकाव्य, जिसका एकमात्र आलम्ब योगेश्वर श्रीकृष्ण का वह शाश्वत स्वरुप है जो सुर के दिव्य नयनों में अहर्निशं भासता है, पर अपनी सम्पूर्णता में खरी उतरती हैं. साख्य, कांता, प्रेम, करुणा, वात्सल्य , ममता और आत्मतत्व के समग्र समर्पण की सतरंगी सप्तधारा का अप्रतिम प्रवाह सुर की काव्य सरिता में मिलता है. ज्ञाता और ज्ञेय एक हो जाते हैं. ज्ञान का अहंकार क्षत विक्षत होकर भक्ति सुधा की सुरसरी में समाहित हो जाता है.
    बहुत सुन्दर , सुगठित और सुरम्य रचना. संपादन का अभाव खटकता है जिससे कुछ भाषागत त्रुटियाँ रह गयी हैं. भले ही भक्ति की भाव भंगिमा में इन भूलों का आभास न होना अस्वाभाविक न हो!

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  3. आदरणीय विश्व मोहन जी -- मेरी रचना के सूक्ष्म अवलोकन के बाद लिखे आपके शब्दों से मुझे बहुत ख़ुशी हुई है | आपने भाव से रचना पढ़ उसकी त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाया , जिसके लिए आभारी हूँ आपकी | मैं शीघ्र ही उन त्रुटियों को सही करने का प्रयास करूंगी | आपकी साहसिक , निष्पक्ष टिप्पणी का हार्दिक स्वागत करती हूँ |धन्यवाद -------------

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  4. बेहद खूबसूरत लेख लिखा आपने रेणु जी श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं

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  5. कण कण में बसे कृष्ण चरित्र को इस विस्तृत आलोकिक लेख ने रोम रोम में उतार दिया है ...
    बहुतों ने नानारूप में कृष्ण को लिखा है पर जो रूप भंगिमा सूर दास ने अपने शब्दों में उतारी है वो अधबुध है ...
    जीवंत कल्पना न होकर साक्षात कान्हा सामने आ जाते हैं ... ये क्षमता शब्दों में तभी उतरती है जब स्वयं कान्हा चाहते हैं ...
    आपको और सभी पाठकों को श्री कृष्ण जन्माष्टमी की बधाई ...

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  6. लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व इतना विशाल है कि उसे काव्य में समेटना आसान नहीं है |परन्तु सूरदास जी के साहित्य में क्ष्री कृष्ण के अनेकों रूपों के वर्णन होता है | बचपन की उनकी मोहक छवियाँ पढ़कर विश्वास ही नहीं होता की महाकवि सूरदास जी जन्म से नेत्रहीन थे |ये दिव्यदृष्टि शायद उन्हें प्रेम और भक्ति से मिली थी | आपने बहुत सुन्दर आलेख लिखा पढ़कर कृष्ण के रंग में रंग गयी ... बधाई

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  7. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11 -8 -2020 ) को "कृष्ण तुम पर क्या लिखूं!" (चर्चा अंक 3790) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा


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  8. उत्तर
    1. सादर आभार दीदी | आपने यहाँ आकर लेख को सार्थक कर दिया |

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  9. बहुत सुन्दर लिखा है आपने प्रिय रेणू जी ,जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई बहन ।

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    1. सादर आभार आदरणीय दीदी | आपको भी मेरी असीम शुभकामनाएं|

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  10. रेणु दी, श्रीकृष्ण के रूप का और उनकी नटखट लीलाओं का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है आपने।

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    1. सस्नेह आभार ज्योति जी | आपको लेख पसंद आया ये मेरा सौभाग्य है |

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  11. आदरणीया मैम,
    बहुत ही प्यारा लेख। भगवान कृष्ण आपसे बहुत प्यार करते हैं तभी तो आपने हम सबको उनके सारे रूपों का दर्शन इतनी मधुरता से कराया।
    यह लेख पढ़ कर बहुत आनंद आया और कान्हा की छवि में समा गई।
    नानी को भी पढ़ने को दिया, उन्हें भी बहुतआनंद आया। वे मुझे कह रहीं थीं यदि प्रभु राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो कृष्ण भगवान लीला पुरुषोत्तम हैं।

    मुझे कृष्ण भगवान के दो रूप सबसे प्रिय हैं। एक उनका माखनचोर बाल रूप और दूसरा द्रौपदी के सखा के रूप में।
    जिस तरह वे माँ द्रौपदी की रक्षा करते हैं और अपनी सखी का ध्यान रखते हैं मुझे बहुत अच्छा लगता है।
    बहुत बहुत सुंदर और प्यारा सा लेख। हृदय से आभार और आपको सादर नमन।

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    1. प्रिय अनंता , भगवान् कृष्ण मुझसे प्यार करते हैं या नहीं ये तो मुझे नहीं पता पर उनके प्रति मुझे गहरा अनुराग है | तुमने लेख को इतनी भावना के साथ पढ़ा मेरा लिखना सार्थक हुआ | मुझसे ज्यादा तुमने कान्हा जी की महिमा लिख दी है | लेख को विस्तार देती प्रतिक्रिया के लिए सस्नेह आभार और शुभकामनाएं | आपकी नानी जी को मेरा सादर प्रणाम और मम्मी को हार्दिक स्नेह | हमेशा खुश रहो |

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