मौसम बदलते देखे थे
अब तुम्हें बदलते देख रही हूँ
सूरज से आये थे एक दिन
साँझ सा ढलते देख रही हूँ !
जिन आँखो से पोंछ के आसूं
मुस्कानें भर दी थी तुमने,
आज उन्हीं में फिर से -
सावन उमड़ते देख रही हूँ !
दहल जाता है ये मन अक्सर
तुम्हें खो जाने के डर से,
कहीं वीरानों में ना खो जाऊं
खुद को संभलते देख रही हूँ !
क्या वो तुम ही थे
जिसके लिए जान बिछाई थी?
हवा हुए अनुबंध प्रेम के,
घावों को रिसते देख रही हूँ !
मेरी पहुँच से दूर हो फिर भी,.
अनजानी -सी ये जिद कैसी ?
चाँद खिलौने पर देखो -
मनशिशु मचलते देख रही हूँ !!
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
प्रिय श्वेता , हार्दिक आभार | पाँच लिंकों ने मुझे बहुत समय बाद याद किया है | अच्छा लग रहा है |
हटाएंमौसम बदलते देखे थे
जवाब देंहटाएंअब तुम्हें बदलते देख रही हूँ
सूरज से आये थे एक दिन
साँझ सा ढलते देख रही हूँ !
बहुत सुन्दर भाव संजोती रचना। प्रियतम को बदलते देखना और चुपचाप एहसास पिरोना अत्यंत ही मनोहारी बनकर उभरा है। बधाई व शुभकामनाएँ ।
आदरणीय पुरुषोतम जी , आपने रचना का मर्म समझकर रचना को सार्थक किया | सादर आभार |
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जवाब देंहटाएंक्या वो तुम ही थे
जिसके लिए जान बिछाई थी?
हवा हुए अनुबंध प्रेम के,
घावों को रिसते देख रही हूँ !
नश्वर जगत में हर संबंध बदल जाते हैं, किसी पर दोषारोपण व्यर्थ है,रेणु दी।
समझ लेना चाहिए कि हमारा विश्वास ही इतना कमजोर था कि वह टूट गया।
हृदय के भावों को बखूबी व्यक्त करता सृजन।
हार्दिक आभार शशि भाई | आपने रचना में निहित अर्थ को पह्चान कर इसे सार्थकता प्रदान की |
हटाएंबहुत सुन्दर भावभीनी रचना।
जवाब देंहटाएंसदर आभार आदरणीय सर | आपने रचना पढ़ी मेरा सौभाग्य है | सादर
हटाएंपहले काल निशा का गम है/
जवाब देंहटाएंचांद हंसे तो फिर पुनम है//
आने-जाने का ये क्रम है/
इसी का नाम, प्रिये, मौसम है//....वाह भावनाओं का हृदयस्पर्शी सरगम।
आपकी काव्यात्मक टिप्पणी रचना से कहीं बेहतर है आदरणीय विश्वमोहन जी , जिसके लिए सादर आभार |
हटाएंवाह!प्रिय सखी ,रेनू ,बहुत ही खूबसूरत सृजन !
जवाब देंहटाएंप्रिय शुभा जी , आत्मीयता से भरपूर आपके शब्द मेरा सौभाग्य है | सस्नेह आभार सखी |
हटाएंमौसम बदलते देखे थे
जवाब देंहटाएंअब तुम्हें बदलते देख रही हूँ
सूरज से आये थे एक दिन
साँझ सा ढलते देख रही हूँ !
सूरज का साँझ बन कर ढलना तय होता हैं सखी ,ये भी आज का सच हैं कि आज इंसान मौसम से भी जल्दी बदल रहे हैं अगर ये कहें कि -मौसम ने इंसानो से रंग बदला सीख लिया हैं तो गलत नहीं होगा ,ये तो यथार्थ हैं।एक यथार्थ ये भी हैं जितनी सुंदर तुम प्रेम गीत रचती हो न उतना ही लाज़बाब तुम्हारे विरह गीत भी होते हैं। हृदयस्पर्शी रचना सखी ,सादर स्नेह
प्रिय कामिनी , तुमने रचना की भावनात्मक समीक्षा की | सस्नेह आभार सखी | ये तुम्हारा स्नेह है बस |
हटाएंजिन आँखो से पोंछ के आसूं
जवाब देंहटाएंमुस्कानें भर दी थी तुमने,
आज उन्हीं में फिर से -
सावन उमड़ते देख रही हूँ !
समय और मौसम के साथ सब कुछ बदल जाता है कभी तो इतना अकस्मात बदलता है कि यकीन करना मुश्किल हो जाता है...ठहर सी जाती है जिन्दगी और सचमुच सावन की बाढ़ मन के भावोंं को एकपल में बहा कर ले जाती हैऔर फिर कुछ समय के लिए सब शान्त निस्पृह....
फिर नव संचार कुछ ऐसे...
कहीं वीरानों में ना खो जाऊं
खुद को संभलते देख रही हूँ !
खुद के संम्भलते ही सब सम्भलने लगता है अविश्वसनीय सा...।शायद ये बदलाव हमें संबल बनाने के लिए प्रकृति प्रदत्त होता है....
बहुत ही भावोत्तेजक लाजवाब सृजन...बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं सखी !
प्रिय सुधा जी , आपने रचना की बखूबी समीक्षा कर दी | निशब्द हूँ | आभार नहीं मेरी ढेरों शुभकामनाए आपके लिए | सस्नेह
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17 -3-2020 ) को मन,मानव और मानवता (चर्चा अंक 3643) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सस्नेह आभार सखी |
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार नीतीश जी |
हटाएंक्या वो तुम ही थे
जवाब देंहटाएंजिसके लिए जान बिछाई थी?
हवा हुए अनुबंध प्रेम के,
घावों को रिसते देख रही हूँ !
बहुत ही सुंदर रचना, रेणु दी।
प्रिय ज्योति जी , आपकी ब्लॉग पर निरंतर उपस्थित मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है | आभार के साथ मेरी शुभकामनायें आपके लिए |
हटाएंप्रेम विरह बदलाव ... कितने मोहक शब्दों से माँ की पीड़ा और होनी वेदना को लिखा है ...
जवाब देंहटाएंहर छन्द मन को छूता हुआ ... दिल को नम करता हुआ ...
बधाई इस गीत की ...
आपने रचना का अंतर्निहित भाव समझा , मेरा लिखना सफल हुआ दिगम्बर जी | इसके लिए सस्नेह आभार आपका |
हटाएंबेहद हृदयस्पर्शी रचना सखी 👌
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार है आपका प्रिय सखी अनुराधा जी |
हटाएंबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति प्रिय सखी रेणु जी।मौसम जैसे किसी का बदलते देखना कितने मर्मस्पर्शी भावों को पिरोया है आपने वाह!!!!!
जवाब देंहटाएंप्रिय सुजाता जी , आपका सस्नेह आभार है | ब्लॉग पर आपका आना मेरा सौभाग्य है |
हटाएंबहुत खूब ...निश्छल अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय सर 🙏🙏
हटाएंबेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति ,बेहतरीन रचना रेणु जी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार है आपका ज्योति जी|
हटाएंहम परिवर्तन को रोकना चाहते है
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन को तो नहीं रोक पाते लेकिन खुद को थोड़े समय के लिए रोक लेते हैं बस वहीं हमें लगता है कि सब बदल रहा है या बदल गया।
इस स्थिति को जी कर ही ऐसी रचना रची जा सकती है।
बहुत ही खूबसूरत अहसासों में बंधी रचना।
इस सारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ, प्रिय रोहित | आपने रचना के भावों को खोल कर विस्तार दिया है | हार्दिक स्नेह और शुभकामनाएं|
हटाएंदहल जाता है ये मन अक्सर
जवाब देंहटाएंतुम्हें खो जाने के डर से,
कहीं वीरानों में ना खो जाऊं
खुद को संभलते देख रही हूँ !
जिसे अपना समझो, वह बदलने लगे तो वेदना तो होती है। बार बार मन खुद को ही दोषी मानने लगता है.... फिर भी निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा कि वह ऐसे निष्ठुर को भी खोना नहीं चाहता!!!
प्रिय मीना , आपने रचना को खोलकर इसका भावार्थ स्पष्ट कर दिया | बहुत बहुत आभार बहना |
हटाएंतुम्हे बदलते देख रहीं हूं..
जवाब देंहटाएंखुद में से तुमको निकलते देख रहीं हूं..
प्रेरणा है आप..
सादर प्रणाम
खुद में से तुमको निकलते देख रही हूँ----
हटाएंधन्यवाद और स्वागत सखी 🙏शायद इस पंक्ति ने रचना के भाव को स्पष्ट कर दिया है और पूरा भी। आपकी इस बौद्धिक और भावपूर्ण प्रतिक्रिया की सदैव आभारी रहूँगी ❤❤🙏🌹🌹
कैवल प्रशंसा अनिवार्य नहीं होता है ..….. बस मौन ...
जवाब देंहटाएंआपकी स्नेहिल प्रतिक्रियाओं से अभिभूत हूँ प्रिय अमृता जी आभार बहुत छोटा है इस स्नेह के समक्ष ❤❤🙏🌹🌹
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