मिले जब तुम अनायास
मन मुग्ध हुआ तुम्हें पाकर ;
जाने थी कौन तृष्णा मन की
जो छलक गयी अश्रु बनकर ?
हरेक से मुंह मोड़ चला
मन तुम्हारी ही ओर चला,
अनगिन छवियों में उलझा
तकता हो भावविभोर चला
जगी भीतर अभिलाष नई-
चली ले उमंगों की नयी डगर ! !
प्राण स्पंदन हुए कम्पित,
जब सुने स्वर तुम्हारे सुपरिचित ;
जाने ये भ्रम था या तुम वो ही थे
सदियों से थे जिसके प्रतीक्षित;
कर गये शीतल, दिग्दिगंत गूंजे
तुम्हारे ही वंशी- स्वर मधुर !!
डोरहीन ये बंधन कैसा ?
यूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
पास नही पर व्याप्त मुझमें
ऐसा जीवन - उल्लास कहाँ ?
कोई गीत कहाँ मैं रच पाती ?
तुम्हारी रचना ये शब्द प्रखर !
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धन्यवाद शब्दनगरी
रेणु जी बधाई हो!,
आपका लेख - (तृष्णा मन की - ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
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वाह बहुत सुंदर भावों से सजी बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंप्रिय अनुराधा जी - आभारी हूँ आपकी किआपने रचना पढ़ी और पसंद की | सस्नेह --
हटाएंडोरहीन ये बंधन कैसा ?
जवाब देंहटाएंयूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
रेणु दी आपकी और श्वेता जी की तृष्णा पर इतनी सटीक सुंदर रचना पढ़ , मन अनेक प्रश्न लिये फिर खड़ा है, प्रतिउत्तर तो देना ही होगा न ? आभारी हूँँ आपका कि मुझे भी ब्लॉग पर लिखने को कुछ मिल जाएगा , आप दोनों की इन रचनाओं से।
हमारे समक्ष राधा-कृष्ण का वह प्रेम है, प्यास है और दायित्व भी...फिर भी एक विश्वास है कि कृष्ण तो राधा के ही हैं।
प्रिय शशि भाई -- आपकी सारगर्भित टिप्पणी और रचना में गहन रूचि से मन अहलादित हुआ | बहन श्वेता की रचना बहुत ही उच्चकोटि की है और उनकी तुलना में मेरा लेखन बहुत साधारण है | ये आपका स्नेह है बस | और प्रेम अपरिभाषित है उस पर कितना भी लिखिए वह परिभाषित नहीं हो पायेगा | राधा-कृष्ण तो प्रेम के पर्याय हैं जो सदियों से आदर्श बनकर अक्षुण है | सस्नेह आभार आपका |
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-09-2018) को "गजल हो गयी पास" (चर्चा अंक-3104) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आदरणीय राधा जी -- आपके सहयोग के लिए सादर आभार |
हटाएंसुन्दर रेनू जी अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंडोर हीन ये बंध कैसा
अनुबंध हीन विश्वास
पास नहीं पर व्याप्त है मुझमें
ऐसा जीवन उल्लास कहाँ !
👏👏👏👏👏👏👏
तृष्णा का उत्तम वर्णन व्याप्त है फिर भी अतृप्तता .....क्या बात .....अनुपम भाव
रचना को परिभाषित करते आपके स्नेह भरे शब्दों के लिए आपकी आभारी हूँ प्रिय इंदिरा जी | सादर आभार आपका
हटाएंरेणू बहन निशब्द हूं आपके लेखन पर ,कुछ समझ नही आता क्या प्रतिक्रिया दूं कभी लगता है सदियों से प्यासे चातक को चंदा ने अनुग्रहित कर दिया और कभी ऐसा कि जैसे गोपियां बनी लहरें उठती है यमुना में और किनारों की तरफ उद्वेग से दौडती है कृष्ण की बंसी सुनने और विचलित हो लौट आती है ।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम माधुर्य और लालित्य से रचित अनुपम कृति ।
प्रिय कुसुम बहन -- मेरी साधारण सी रचना को आपके इन असाधारण शब्दों ने विशेष बना दिया | ये शब्द मूल रचना से कहीं सुंदर और रचना के भावों को अत्यंत सार्थक विस्तार दे रहें हैं | आभार से कहीं परे आपके इस स्नेह के लिए बस मेरा प्यार स्वीकार हो |
हटाएंबहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना आदरणीया रेणू जी
जवाब देंहटाएंआदरणीय अभिलाषा जी -- स्नेह भरा आभार आपके लिए |
हटाएंहरेक से मुंह मोड़ चला -
जवाब देंहटाएंमन तुम्हारी ही ओर चला
अनगिन छवियों में उलझा -
तकता हो भावविभोर चला-
जगी भीतर अभिलाष नई-
चली ले उमंगों की नयी डगर ! !
वाह!!!बहुत लाजवाब रचना लिखी है रेणु जी !बहुत बहुत बधाइयाँँ....
मन की तृष्णा.... प्रेम..प्रेम...बस प्रेम....
सचमुच मन प्रेम के लिए तृषित ही है...
प्रिय सुधा जी -- आपकी स्नेहासिक्त टिप्पणी बहुत ही प्रेरक और अनमोल है मेरे लिए | आपका ब्लॉग पर आना सकरात्मक ऊर्जा का परिचायक है | सुस्वागतम और सस्नेह आभार आपका |
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २४ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
प्रिय श्वेता - पांच लिंकों का सहयोग अनमोल और प्रेरक है | सस्नेह आभार |
हटाएंखूबसूरत रचना 👌👌👌
जवाब देंहटाएंसच कहा ...सुन्दर अभिव्यक्ती 🙏🙏🙏
प्रिय नीतू जी -- सस्नेह आभार |
हटाएंमैंने एक बार मेरी कक्षा के बच्चो से पूछा कदंब के पेड़ की डाल पर बैठ कर भगवान कृष्ण क्या छेड़ते थे?
जवाब देंहटाएंसभी बच्चों का एक साथ जवाब आया- गोपियाँ
मैंने कहा- नहीं. वो आप लोंगों जैसे नही हो सकते. वो तो केवल बंसी की धुन छेड़ते थे,दुनियां या गोपियाँ तो अपने आप छिड़ जाती थी. ये उच्च कोटि का प्रेम है.और जो आप लोग जिसे प्रेम समझते हो वो उच्च कोटि का छलावा मात्र है.
गोपियों की मन की बात है आपकी कविता ..वास्तविक प्रेम का घोतक.
आदरणीय रोहित जी -- आपने बच्चों के साथ वार्तालाप के माध्यम से कृष्ण - गोपियों के आलौकिक प्रेम को बखूबी परिभाषित किया है | बच्चे शायद जैसा कहीं कुछ सुनते हैं उसी विचारधारा का अनुकरण कर लेते हैं | आपने 'छेड़ना'' शब्द को बड़े दिव्य सन्दर्भ में लिखा है जो कि आपके गहन आत्म बोध का परिचायक है |और रचना आपको गोपियों के मन की बात लगी उसके बारे में कहूंगी आपने रचना को बड़े सात्विक भाव से देख इसके भावों को सार्थक कर दिया क्योंकि '' जिसकी रही भावना जैसी -- प्रभु मूर्ति देखि तिन तैसी ''-- आभार से प्रे आपके शब्दों के लिए बस मेरा नमन |
हटाएंछेड़ना शब्द पर ही तो ये बात कही थी मैंने.
हटाएंआपकी इस कविता ने मुझे अंदर से छेड़ कर रख दिया था..
आभार.
डोरहीन ये बंधन कैसा ?
जवाब देंहटाएंयूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
पास नही पर प्याप्त मुझमें
ऐसा जीवन - उल्लास कहाँ ?
अत्यंत सुन्दर सृजन ।।
प्रिय मीना जी -- आपके स्नेह भरे शब्दों के लिए -- हार्दिक आभार आपका --
हटाएंमिले जब तुम अनायास -
जवाब देंहटाएंमन मुग्ध हुआ तुम्हें पाकर ;
जाने थी कौन तृष्णा मन की -
जो छलक गयी अश्रु बनकर ?
बहुत खूब 👌
बेहतरीन रचना रेणू जी ।
आदरणीय अनिता जी -- सबसे पहले हार्दिक स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग पर -- रचना पर आपके अनमोल शब्दों के लिए सस्नेह आभार |
हटाएंबहुत ही उम्दा रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंआदरणीय लोकेश जी --रचना - यात्रा में आपका सहयोग ओर प्रोत्साहन बहुत प्रेरक है | सादर आभार |
हटाएं........रेणू जी बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंजाने थी कौन तृष्णा मन की -
जो छलक गयी अश्रु बनकर ?
बहुत खूब 👌
सादर आभार आपका प्रिय संजय जी |
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंरेनु जी बहुत शानदार।
डोरहीन ये बंधन कैसा ?
यूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
पास नही पर प्याप्त मुझमें
ऐसा जीवन - उल्लास कहाँ ?
बहुत सारे ऐसे अनुबंधहीन बंधन उम्र भर बनते रहते हैं जिसकी भाषा बस नज़र की ही जुबान हैं शायद या नही भी।खेर बहुत अच्छा लगा एक अपरिभाषित बंधन की तृष्णा को एहसास करके।बधाई।
प्रिय जफर जी -- रचना की अपनी मौलिक दृष्टि से विवेचना कर आपने रचना के भावों को विस्तार दिया है |इसके मर्म तक पहुँचने के लिए सस्नेह आभार आपका |
हटाएंभाव का बहता झरना है ये संवेदित रचना ... ये उम्र के बंधन बिना किसी बंध के होते हैं ... दिल को छूती हुयी रचना है ...
जवाब देंहटाएंआदरणीय दिगम्बर जी -- आपके स्नेहासिक्त उदगार सदैव प्रेरित करते हैं | सादर आभार |
हटाएंडोरहीन ये बंधन कैसा ?
जवाब देंहटाएंयूँ अनुबंधहीन विश्वास कहाँ ?
पास नही पर व्याप्त मुझमें
ऐसा जीवन - उल्लास कहाँ ?
कोई गीत कहाँ मैं रच पाती ?
तुम्हारी रचना ये शब्द प्रखर !
ये पंक्तियाँ ले जा रही हूँ अपने लिए चुराकर....
अत्यंत भावुक हो गई आपकी यह रचना पढ़कर प्रिय रेणु बहन.... भला किसी प्रेरणा के बिना भी कुछ उपजता है ? लेखनी का अवलंब बनती है कोई अधूरी तृष्णा और तब ये शब्दों के मोती झरते हैं !!! आपकी हर रचना में माँ सरस्वती का वास है। बहुत सा स्नेह!!!!
प्रिय मीना बहन -- आपके शब्द अभिभूत कर रहे हैं | आप जैसे स्नेहियों को समर्पित है ये शब्द संपदा | आपके शब्द अनमोल है आभार क्या लिखूं ? बस नमन |
हटाएंNice
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