इक मधुर एहसास है तुम संग
ये अल्हड लडकपन जीना ,
कभी सुलझाना ना चाहूँ
वो मासूम सी उलझन जीना !
बीत ना मन का मौसम जाए
चाहूँ समय यहीं थम जाए ;
हों अटल ये पल -प्रणय के साथी
भय है, टूट ना ये भ्रम जाए ,
संबल बन गया जीवन का
तुम संग ये नाता पावन जीना !
बाँधूं अमर प्रीत- बंध मन के
तुम संग नित नये ख्वाब सजाऊँ,
रोज मनाऊँ तुम रूठो तो
पर तुमसे रूठना - कभी ना चाहूं
फिर भी रहती चाहत मन की
इक झूठमूठ की अनबन जीना !!
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धन्यवाद शब्द नगरी -
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धन्यवाद शब्द नगरी -
रेणु जी बधाई हो!,
आपका लेख - (उलझन -- लघु कविता) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
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आदरणीया रेणू जी, आपकी यह कविता अनुभूतियों की जीवन्त प्रस्फुटन है। आपमें शब्दों को सजाने की कला है। इसके समायोजन को गेयता की दृष्टि से और भी बेहतर बनाया जा सकता है। आपके हिन्दी साहित्याकाश मे तीव्र रोशनी की तरह चमकने की कामना करता हूँ। सादर!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंआदरणीय सर -- सादर आभार और सुस्वागतम ! आपकी त्वरित सारगर्भित टिप्पणी से मन को अपार हर्ष हुआ | आपकी ही तरह एक दो और सुधि विद्वानों ने इस तरह का सुझाव दिया है पर समझ नहीं पाती रचना में किस तरह का सुधार संभव हो सकता है | फिर भी आपके स्नेहासिक्त सुझाव के लिए बहुत आभारी हूँ | सादर --
हटाएंसुंदर भावों का समयोजन। प्यारी सी रचना....
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय पुरुषोत्तम जी |
हटाएंबीत ना मन का मौसम जाए -
जवाब देंहटाएंचाहूं समय यहीं थम जाए ; बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना
प्रिय अनुराधा जी- आपके निरंतर सहयोग के लिए आभारी रहूंगी | सस्नेह --
हटाएंयह उलझन तो जीवन को सुंदर बना देती है। खूबसूरत भावों से परिपूर्ण रचना 🙏
जवाब देंहटाएंप्रिय अभिलाषा जी -- सस्नेह आभार आपका |
हटाएंरोज मनाऊँ तुम रूठो तो
जवाब देंहटाएंपर तुमसे रूठना - कभी ना चाहूं
फिर भी रहती -चाहत मन की
इक झूठमूठ की अनबन जीना !!!!!!!!
जी रेणु दी
बहुत सुंदर रचना
इससे बढ़ कर जीवन में न कोई मधु कलश है
जी प्रिय शशि भाई -- आपने सही लिखा | हार्दिक स्नेह सहित आभार |
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-10-2018) को "कृपा करो अब मात" (चर्चा अंक-3125) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
आदरणीय राधा ही -- सस्नेह आभार आपका |
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १४ अक्टूबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
प्रिय श्वेता -- सस्नेह आभार आपका |
हटाएंझूटमूट की अनबन जीना...
जवाब देंहटाएंआहा...ये गहरा प्यार.
बड़े प्यारे अल्फाजों में बंधा है.
मैं रूठी हूँ ये तुम महसूस करो
पीछे पीछे रहो सारे दिन
बस एक चाह है उस राह की
जिस राह से तुम मुझ से इश्क करो.
हद पार इश्क
आदरणीय रोहित जी -- मूल रचना से कहीं अधिक मनभावन पंक्तियाँ लिखी आपने | इसके साथ आपके उत्साहवर्धक शब्द मनोबल उंचा करते हैं | आपके सहयोग के लिए सादर आभार |
हटाएंबहुत ही सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय अनीता जी |
हटाएंवाह!प्रिय रेनू जी ,बहुत खूबसूरत लिखती हैंं आप !!
जवाब देंहटाएंप्रिय शुभा बहन -- आपके सराहना भरे शब्दों के लिए हार्दिक स्नेह सहित आभार \
हटाएंरेनू बहन बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति, मन की गहराइयों से उठता प्रिय के लिये अनुराग समर्पण का बैजोड़ भाव लिये मोहक श्रृंगार रचना मन वीणा के तार धीमे धीमे सहलाती।
जवाब देंहटाएंतुम रूठे रहो मै मनाती रहूं
इन अदाओं पे और प्यार आता है
थोडे शिकवे भी हो कुछ शिकायत भी हो……
पर साथी का स्नेह सदा मुखरित रहे ।
प्रिय कुसुम बहन -- आपके सराहना भरे शब्द भी एक काव्य रचना की तरह सरस और मनभावन होते हैं | आपके इस स्नेह के लिए मेरे पास कोई आभार नहीं सिर्फ मेरा प्यार है | सस्नेह |
हटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंप्रिय अंकित जी-- सस्नेह आभार |
हटाएं'काँटों का भी हक़ है आख़िर, कौन छुड़ाए अपना दामन?' रेणु जी, कुछ इसी तरह आपकी नायिका उलझन का भी हक़ मानती है, उलझन को वह सुलझाना ही नहीं चाहती. वैसे भी रूठना नहीं होगा तो मनाना कैसे होगा? विरह नहीं होगा तो पुनर्मिलन का आनंद कैसे आएगा?
जवाब देंहटाएंआदरणीय गोपेश जी -- आपका मेरे ब्लॉग पर आ मेरी रचना पढना मेरा सौभाग्य !! विषय को विस्तार देती आपकी समीक्षा के लिए सादर आभार और नमन |
हटाएंजहाँ बचपन है लड़कपन है उसे क्यों समझना ...
जवाब देंहटाएंकाश यूँ ही बच्चे बने रहें ...
बहुत ही भावपूर्ण रचना ...
हार्दिक आभार और शुक्रिया दिगम्बर जी | विलम्बित उत्तर के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ
हटाएंबीत ना मन का मौसम जाए -
जवाब देंहटाएंचाहूं समय यहीं थम जाए ;
हों अटल ये पल -प्रणय के साथी -
भय है, टूट ना ये भ्रम जाए
पावन प्रणय के अटूट बन्धन की ये उलझन भी कैसी है कि उलझने में ही सुख है....मनुहार में आनन्द....।इन भावो को शब्द देना आसान नहीं ये आप ही कर सकती है रेणु जी
बही ही भावप्रवण ...लाजवाब उलझन...।
वाह!!!
प्रिय सुधा बहन , विलम्बित उत्तर के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | आपकी प्रतिक्रिया हमेशा ही स्नेहिल रहती है | रचना का मर्म पकड़ने के लिए आपका आभार है |
हटाएंरोज मनाऊँ तुम रूठो तो
जवाब देंहटाएंपर तुमसे रूठना - कभी ना चाहूं
फिर भी रहती -चाहत मन की
इक झूठमूठ की अनबन जीना
वाह रेनू जी बहुत उम्दा
जीवन को अगर ऐसे ही हम अपना ले तो हर मुश्किल आसान हो जाय। बगैर कुछ मांगे देने की कला को सिर्फ प्रेम ही नहीं तमाम ज़िंदगी का फलसफा कहना चाहिए। बहुत सुन्दर अंदाज़ मे अपने उस समर्पण उस तत्व को लिखा हैं जो अमर हैं बस उसको पा लेना ही सबकुछ हैं।
आपका हार्दिक आभार प्रिय जफ़र जी | विलम्बित उत्तर के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | आपकी प्रतिक्रिया सदैव अनमोल रहती है |
हटाएंमैं क्या बोलूँ अब....अपने निःशब्द कर दिया है..... बहुत ही सुंदर कविता.
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय संजय | आपका ब्लॉग पर आना विशेष रहता है |
हटाएंबहुत सुंदर रचना है,
जवाब देंहटाएंVisit Also-Facebook Tips, Mobile Tips, Whatsapp Tips, Blogger Tips in hindi
आभार मान्यवर !
हटाएंबहुत खूब,लाजबाब सखी ,उलझन में भी शुकुन आता हैं ये मेरा भी अनुभव हैं ,तुम्हारे शब्द बोलते हैं ...
जवाब देंहटाएंमेरी रचनाओं को निरंतर इतना मान देने के लिए सस्नेह आभार सखी |
हटाएंVery nice article very helpful
जवाब देंहटाएंairtel recharge list
आभार मान्यवर |
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