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बुधवार, 8 मई 2019

पथिक ! मैंने क्यों बटोरे

 

पथिक !  मैंने क्यों बटोरे   
 नेह भरे   वो पल तुम्हारे ?
यतन कर  - कर के हारी , 
गए ना    मन से बिसारे !

कब  माँगा  था   तुम्हें 
किसी दुआ  और प्रार्थना में ?
तुम कब थे समाहित 
मेरी     मौन अराधना में ?
आ गये अपने से बन क्यों
 बंद ह्रदय के  द्वारे  ! !
 

हँसी- हँसी  में लिख दिए 
 दर्द संग अनुबंध मैंने ,
 थाम रखे जाने  कैसे 
 आँसुओं के बन्ध मैंने  ;
 टीसते मन को लिए
 संजोये   भीतर  सागर   खारे !!

क्यों उतरे मन के तट-
एक सुहानी प्यास लेकर?
अनुराग  गंध से भरे  
 अप्राप्य से मधुमास लेकर ;
क्यों ना गये राह अपनी
समेट  मधु स्वप्न सारे ! !

ना था अधिकार   क्यों  रखी    
व्यर्थ   मिलन  की चाह मैंने ?
किस आस पर निहारी
 पहरों तुम्हारी राह मैंने ?
 आँचल में  क्यों  भर बैठी
 भ्रामक से चाँद सितारे !!
 

चित्र ---- गूगल से साभार -- 

52 टिप्‍पणियां:


  1. ना था अधिकार क्यों रखी ,
    व्यर्थ मिलन की चाह मैंने ,
    किस आस पर निहारी
    पहरों तुम्हारी राह मैंने ?
    आंचल में क्यों भर बैठी
    भ्रामक से चाँद सितारे !!!!!!!!!

    बहुत ही भावपूर्ण रेणु दी।
    ऐसे अनुबंध सदैव कष्टकारी होते हैं,जब कभी पथिक उसे भुला देता है...।
    वैसे, सभी जानते हैं कि मुसाफिर अपने नहीं होते हैं , फिर भी स्नेह को भला रोका कैसे जा सकता है। यह तो हृदय की तिजोरी से स्वतः बाहर चला आता है।
    भले ही उसका मोल पथिक के लिये न हो।
    पर मुसाफ़िर खाना फिर भी उसका इंतजार करेगा..।

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    1. प्रिय शशि भाई रचना पर आपका चिंतन आलौकिक है | इसके लिए आभार नहीं मेरी शुभकामनायें आपके लिए |

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2019) को "कुछ सीख लेना चाहिए" (चर्चा अंक-3331) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आदरणीय सर -- आपका सहयोग अविस्मरनीय है | सादर आभर आपका |

      हटाएं
  3. ऐसे अनुबंध से तो अच्छा यह है-

    क़बूल है ये उदास भरी रातें मुझे
    अब उजालों की चाहत नहीं मुझको..

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  4. कब माँगा था तुम्हे
    किसी दुआ और प्रार्थना में ?
    तुम कब थे समाहित -
    मेरी मौन अराधना में ?
    आ गये अपने से बन क्यों
    बंद ह्रदय के द्वारे ! !
    बहुत खूब सखी ,लाजबाब ,तुम्हारी रचनाये अंतरात्मा तक में उतरती चली जाती हैं ,मैं शब्दहीन हो जाती हूँ क्या लिखु तुम्हारे तारीफ में ,कई दिनों बाद तुमने कोई नई रचना लिखी हैं ,बहुत ख़ुशी हुई। पथिक की राह निहारो , बस उस राह पर अपनी लेखनी से फुल बिछाती जाओं ,कभी तो लौट के आयेगा और नहीं भी आया तो भी तुम्हारा दामन उसकी यादों की खुशबु से भरा तो जरूर रहेगा ,सादर स्नेह

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    उत्तर
    1. प्रिय कामिनी -- हार्दिक आभार सखी इन स्नेहिल उद्गारों के लिए | कुछ दिन पहले एक कहानी पढ़ी थी उसी के कथानक से प्ररित रचना है | तुम्हे पसंद आई मेरा लिखना सफल हुआ |

      हटाएं
  5. तुम कब थे समाहित -
    मेरी मौन अराधना में ?
    आ गये अपने से बन क्यों
    बंद ह्रदय के द्वारे ! !... मार्मिक सवाल उस हर मन का जो एक अनजाने के साथ अनजाने रिश्ते से बंध जाता है। कोई कहीं भी चला जाए मन का रिश्ता हर वक़्त मन के एक कोने में स्पन्दित होता रहता है, समाज की आम आँखों से परे ... निरन्तर किसी पहाड़ी नदी सी पतली धार पर निरंतर ....

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    उत्तर
    1. आदरणीय सुबोध जी -- सबसे पहले मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | आप जैसे प्रबुद्ध कवि ने मेरी रचना पढ़ी इससे मेरी रचना और ब्लॉग दोनों का मान बढ़ा है | रचना पर आपका चिंतन लाजवाब है जिसके लिए आभारी रहूंगी | सादर आभार और नमन |

      हटाएं
  6. जी नमस्ते,

    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १० मई २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  7. दी, आपकी ये रचना मेरे मन को छू गयी..हर शब्द हर पंक्ति हृदय के तार झंकृत कर गये.. प्रेम और विरह की पीड़ा के उदात्त भावों में गूँथी सराहनीय अभिव्यक्ति।
    सिर्फ़ और सिर्फ़ वाहह्हह..👌

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    1. प्रिय श्वेता -- तुम्हे रचना पसंद आई जानकर मन को संतोष हुआ | तुम्हारे प्रोत्साहन से मन आह्लादित है | हार्दिक आभार और शुक्रिया |

      हटाएं
  8. आवश्यक सूचना :

    सभी गणमान्य पाठकों एवं रचनाकारों को सूचित करते हुए हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि अक्षय गौरव ई -पत्रिका जनवरी -मार्च अंक का प्रकाशन हो चुका है। कृपया पत्रिका को डाउनलोड करने हेतु नीचे दिए गए लिंक पर जायें और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचाने हेतु लिंक शेयर करें ! सादर https://www.akshayagaurav.in/2019/05/january-march-2019.html

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    उत्तर
    1. प्रिय ध्रुव -- अभी कुछ देर पहले ही मैंने fb पर पत्रिका का लिंक शेयर किया है | आप सभी को पत्रिका के प्रवेशांक की ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनायें |

      हटाएं

  9. क्यों उतरे मन के तट-
    एक सुहानी प्यास लेकर?
    अनुराग गंध से भरे -
    अप्राप्य से मधुमास लेकर ;
    क्यों ना गये राह अपनी
    समेट मधु स्वप्न सारे ! !....बहुत सुन्दर प्रिय रेणु दी जी
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय अनीता तुम्हारे शब्द अनोल हैं | सस्नेह आभार |

      हटाएं

  10. हंसी- हँसी में लिख दिए -
    दर्द संग अनुबंध मैंने ,
    थाम रखे जाने कैसे-
    आसूंओ के बन्ध मैंने ;
    टीसते मन को लिए-
    संजोये भीतर सागर खारे !!
    बहुत ही बेहतरीन रचना प्रिय रेणु बहन 🌹

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    उत्तर
    1. प्रिय अनुराधा बहन -- आपके स्नेह भरे शब्दों के लिए आभारु हूँ |

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  11. आदरणीय महादेवी जी की साक्षात प्रतिमा मन मे उत्तर आयी। बधाई और आभार!!!

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    1. आदरणीय विश्वमोहन जी -- आपके अनमोल शब्दों के लिए आभारी रहूंगी |

      हटाएं
  12. अनचाहे आनंद के अलौकिक प्राप्ति की अनुपम प्रस्तुति

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    उत्तर
    1. आदरणीय अयंगर जी सादर आभार आपके रचना के मर्म को छूते शब्दों के लिए |

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  13. बेहतरीन भावों से सजी हुई सुन्दर रचना

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    1. प्रिय अभिलाषा बहन आपका हार्दिक आभार और प्यार |

      हटाएं
  14. बीत गया जो, बुरा स्वप्न था, यही सोच ले,
    निर्मोही को भूल, राह तू नई खोज ले.



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    1. जी आदरणीय गोपेश जी -- सादर आभार आपके अनमोल शब्दों के लिए |

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  15. यूं ही होता है जब मन के बंद दरवाजे पर कोई सेंध लगा कर
    चला जाता है मन में एक हिलोल मचलती है खुद ही ही कहता है खुद ही
    सुनता है बटोही तो बस पदचाप छोड़ चला जाता है
    हृदय की पगडंडी पर मासूम दिल बस तड़पता है।
    विरह और श्रृंगार का अनुपम सृजन किया है आपने रेणु बहन
    दिल पर छाप छोड़ गया आपका सृजन।
    अप्रतिम अनुपम।

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    1. प्रिय कुसुम बहन -- रचना के मर्म की थाह पाते आपके सारगर्भित विवेचन के लिए हार्दिक आभार और प्यार |

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  16. रेणु दी, आपकी रचना प्रेम और विरह का अद्भुत संगम हैं। बहुत सुंदर।

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    1. प्रिय ज्योति बहन -- रचना पर आपके अनमोल शब्द विशेष हैं | सस्नेह आभार सखी |

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  17. ना था अधिकार क्यों रखी ,
    व्यर्थ मिलन की चाह मैंने ,
    किस आस पर निहारी
    पहरों तुम्हारी राह मैंने ?
    आंचल में क्यों भर बैठी
    भ्रामक से चाँद सितारे !!!!!!!!!
    प्रेम विरह और कभी न खत्म होने वाला इन्तजार उन प्रेम के पलों को भी कोसने पर मजबूर हो जाता है विरहाग्नि की तपन से शरीर ही नहीं जिसकी आत्मा भी झुलस रही होउसके लिए सुनहरे स्वप्न भी मन के भ्रम ही तो हैं.....
    हमेशा की तरह एक और अद्भुत, भावपूर्ण एवं लाजवाब रचना...बहुत बहुत बधाई सखी सुन्दर सृजन के लिए।

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    उत्तर
    1. प्रिऊ सुधा बहन -- आपका सूक्ष्म विवेचन मेरी रचना की शोभा बढ़ाते हुए उसका भाव स्पष्ट कर देता है | सस्नेह आभार सखी |

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  18. पथिक ! मैंने क्यों बटोरे -
    नेह भरे वो पल तुम्हारे ?
    यतन कर - कर के हारी ,
    गए ना जो मन से बिसारे !
    सच कहा आपने। प्रीत के काँटे जब नासूर बनकर चुभते हैं तब उस पथिक की याद भी मरहम का कार्य नहीं कर पाती। इस सुंदर सृजन हेतु बधाई व शुभकामनाएं आदरणीया रेणु जी ।

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    1. आदरनीय पुरुषोत्तम जी -- रचना पर आपकी सूक्ष्म विवेचना के लिए सादर आभार |

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  19. उत्तर
    1. मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है रचना जी |हार्दिक आभार |

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  20. अनजान पथिक के प्रेम की यादें और उसके दंश ...कभी अमृत तो कभी विष पर यादें मधुर ही रहती हैं ... उस पथिक के साथ के यात्रा प्रेम अनुबंध बन के जीवन भर रहती है ...
    सुन्दर गहरा मीठा एहसास लिए है ये रचना ... बहुत बधाई ...

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  21. हंसी- हँसी में लिख दिए -
    दर्द संग अनुबंध मैंने ,
    थाम रखे जाने कैसे-
    आंसुओ के बन्ध मैंने ;.....,
    बेहतरीन और बस बेहतरीन...., उत्कृष्ट भावों का सृजन रेणु जी ।इतनी सुन्दर भावभीनी रचना पढ़ कर मन्त्रमुग्ध हूँ । सस्नेह ...,

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    उत्तर
    1. प्रिय मीना बहन हार्दिक स्वागतम और आभार |   

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  22. प्रेम और विरह का अद्भुत संगम हैं....बेहतरीन

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  23. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 14 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  24. आपकी कलम की अदा के हम कदरदान हो गए आदरणीया दीदी जी। आपकी हर रचना सीधे मन को छूती है।
    वाह बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
    सादर नमन

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय आँचल तुम्हारी वाह वाह से अभिभूत हूँ | मेरी शुभकामनायें और प्यार तुम्हारे लिए |

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  25. जब चमन बन सुरभि चंदन
    और हृदय अभिसार धारे।
    हौले हौले मन्द पवन बन
    ठुमक ठुमक तुम हृदय द्वारे।
    जीते मीता तुम हिया जो,
    और हम अपना सब कुछ हारे।

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    उत्तर
    1. आदरणीय विश्वमोहन जी, आपकी ये सुंदर काव्यात्मक टिप्पणी मेरे ब्लॉग की अनमोल थाती रहेगी। कोटि आभार आपके अनुग्रह का 🙏🙏🙏

      हटाएं

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