मेरी प्रिय मित्र मंडली

गुरुवार, 10 अगस्त 2017

अपराजिता ----------- कहानी --

   संघर्ष की धूप ने  गौरवर्णी   तारो को ताम्रवर्णी   बना  दिया था  |   लगता था  , नियति ने ऐसा कोई वार नहीं छोड़ा  -जिससे   तारो  को घायल न किया हो, पर तारो थी कि नियति के हर वार को सहती - निडरता से जीवन की राह पर चलती  ही जा रही थी   |  लोग कहते थे ,बड़ी अभागी है तारो – क्या कभी तारो  के जीवन में   कोई  ख़ुशी आएगी ? ये देखते –देखते बरस के बरस बीते जा रहे थे   | पर जिस तारो से खुशियाँ  वर्षों  से रूठी थी - उस तारो के घर के दरवाजे पर आज खुशियों ने दस्तक  दे दी थी | छवि को याद आया   ------------------------------
  जब उसने वर्षों पहले   नई नवेली दुल्हन के रूप में पहली बार तारो को देखा था, तो वह बार -बार अपनी पलकें झपका  रही थी , कि कहीं ये सपना तो नहीं |मोटी-  मोटी  आँखों वाली गोरी  चिट्टी ,लम्बी  , पतली लाल जोड़े में  सजी तारो किसी परी  या अप्सरा  से कम नहीं लग रही थी |  जगतार के  साथ उसकी  जोड़ी इतनी  खूब  लग रही थी     कि  मानो  ईश्वर ने दोनों  को एक दूसरे के लिए ही बनाया  हो !   सेना का बांका जवान जगतार  भी आकर्षण में तारो से  किसी  तरह  कम न था |  बहुत दिनों तक गाँव  भर में उनकी  बेमिसाल जोड़ी के चर्चे होते  रहे | तारो के सास – ससुर  निहाल थे-- इतनी सुन्दर – सुघड़ व सुशील  बहू पाकर --तो वहीँ तारो भी इतना प्यार  करने वाले , सरलता व सादगी से भरे लोगों को ससुराल में पाकर फूली नहीं  समा रही थी  |   जगतार के पिता ने   मेहनत मजदूरी  कर के  अपने तीनों बेटों को  अच्छी शिक्षा दिलवाई थी | दो बड़े बेटे दूर के शहरों  में सपरिवार  रह अच्छा खा कमा  रहे थे ,सबसे छोटा  जगतार  कबड्डी  का अच्छा खिलाडी और  शारीरिक रूप से स्वस्थ था |वह सेना में भर्ती हो  कर  देश की सेवा करना  चाहता था |  उसकी  लगन का नतीजा  था कि अपने  प्रथम  प्रयास  में ही वह सेना में भर्ती होने में  सफल हो गया |   इसके  लगभग  तीन साल बाद ही जगतार की शादी  तारो से हो गई |  जगतार  शादी के बाद   तक छह वर्षों  तक साल में दो बार छुट्टी लेकर घर आता और परिवार व गाँव वालों से मिलकर वापस चला जाता |   इसी बीच तारो एक बेटे व दो जुड़वां  बेटियों  की माँ बन गई |  बेटे के जन्म  के  दो दिन बाद ही जगतार एक महीने की छुट्टी  लेकर घर आया    |  उसने खुशी में खूब ढोल  बजवाया और  मिठाइयाँ  बांटी। ।खुशी की  रौ में अपने बेटे को गोद में लेकर मस्ती में नाचता रहा और चिल्लाता  रहा ‘’अरे  अपने बेटे को तो मैं फ़ौज  में अपने  जैसा  फौजी    बनाऊंगा जी  --जो मेरी तरह  देश  की सेवा करेगा  -------------''!   !    
जगतार  का घर   छवि के स्कूल  के रास्ते में पड़ता  था ,जहाँ तारो अपने सास –ससुर के साथ रहती थी ,जिसमें दो छोटे कमरे व बड़ा सा कच्चा आँगन था |  स्कूल आते- जाते  छवि तारो के घर में झाँकने  से खुद  को रोक न पाती  थी -  तो घर के कामों में लगी तारो भी  उसके झाँकने पर और सामने दिख  जाने पर   उसे  निराश न  करती और निश्छलता  व स्नेह से मुस्कुरा उठती |  सफ़ेद धवल दांतों की पंक्ति जगमगा उठती  ,  तो नन्ही छवि शर्मा कर भाग  जाती |    तारो  सास -ससुर की सेवा व बच्चों  की देख भाल जी जान से करती    |   कुछ दिनों के बाद सुना गया  कि जगतार की पोस्टिंग पंजाब के एक शहर में हो   गई   है  , जहाँ  उसके उल्लेखनीय कार्यों व कर्मठता के लिए सेना ने उसे पदोन्नति  दे कर हवलदार बना दिया  है   | इसके   थोड़े  दिन  बाद  ही  जगतार छुट्टी लेकर घर आया और कुछ दिन गाँव में रहने  के बाद  अपने माता- पिता  की अनुमति लेकर तारो व  बच्चों को कुछ  दिनों के लिए घूमाने -फिराने अपने साथ पंजाब ले गया    |  लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था    |  तारो को  जगतार  के पास गए  कुछ ही दिन हुए थे  कि एक दिन अपनी  ड्यूटी  से घर लौटते वक़्त जगतार को किसी  वाहन ने टक्कर मार दी    - जिससे वह बेहोश होकर सड़क पर गिर  पड़ा   |  राह चलते  लोगों ने सेना के इस घायल  जवान  को तुरंत  ही अस्पताल  पहुँचाया , जहाँ उपचार के बाद उसे होश तो आ गया , पर उसके सिर में गंभीर चोट लगने की वजह से उसके  दिमाग  को भारी क्षति  पहुंची  थी - जिससे वह कुछ भी सोचने-  समझने लायक न रह गया था, यद्यपि वह शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ था  |अब जो जगतार था वह नाम का जगतार  था -  न वह  तारो को  पहचानता था न अपने  बच्चों को -- अपनी  ही दुनिया  में खोया  जगतार कभी अंग्रेजी  के कुछ शब्द  बोलता या फिर फौजी स्टाइल में लेफ्ट राईट –लेफ्ट राईट करने लग जाता 
  |  मिलिट्री अस्पताल के कई  डाक्टरों ने जगतार का सूक्ष्म  मुआयना किया और इस निष्कर्ष  पर पहुंचे   कि जगतार  अब कभी  सामान्य  नहीं हो सकता | उनके दिए प्रमाण- पत्रों  के आधार  पर सेना ने  नाम की  पेंशन  देकर अपने  इस जवान को समय पूर्व ही  सेवानिवृत   कर दिया    |  रोती- बिलखती  तारो जगतार को एक जिन्दा  लाश के रूप  में लेकर  घर लौट आई थी  | उसकी दुनिया  निराशा  के अंधेरों  से घिर चुकी  थी |  उसकी हँसती - खेलती  जिन्दगी को न जाने किस की  नज़र लग चुकी थी  कि  उसकी जिन्दगी  में अप्रत्याशित  दुखों व संघर्ष  ने डेरा डाल लिया था   |   जगतार ही पूरे  परिवार की खुशियों  का केंद्र  था   | उसके  इस हाल ने  उसके माता – पिता को गहरा  आघात   पहुँचाया    जिससे  वे ज्यादा दिनों  तक  न जी  पाए |  तारो के पिता नहीं थे और भाई  भी आर्थिक  रूप से  कमजोर थे  अतः मायके की तरफ से कुछ भी आशा  रखना  व्यर्थ था | हाँ  जगतार के दोनों  भाई यदा- कदा कुछ  मदद अवश्य कर देते  पर अपने  खर्चे बढ़ जाने पर उन्होंने भी  हाथ खीँच लिया |   शुरू  में तारो की आँखों  में आंसू  भरे  रहते थे  |  जगतार  का यह रूप उसके  लिए असहनीय था   |   जो जगतार उसकी एक   हँसी पर अपना  सर्वस्व      न्यौछावर  करने  को तैयार  रहता  था  -आज उसके दिन- रात आंसू  बहाने  का भी उस पर कोई असर न  था | तारो ने  एक दो  परिचितों की  सलाह पर अपने  गहने इत्यादि  बेच कर जगतार को  अलग -अलग  शहरों  के कई डॉक्टरों  को  दिखाया  पर  नतीजा शून्य   ही रहा   ! 

तारो   नियति  के जाल में उलझ चुकी थी |   बच्चों के साथ –साथ  जगतार  को संभालना  एक  दुष्कर कार्य था   |वह जब - तब कंही बाहर भाग  जाता   तब उसे पकड कर लाना बड़ा कठिन था |  कई बार  अपने गाँव या फिर पास के गाँव के जान- पहचान  वाले लोग  उसे पकड़ कर लाते व उसे समझाने  की कोशिश  करते  पर  हर बात उसकी समझ से बाहर थी ,यंहा तक कि उसे  अपनी भूख प्यास व   अन्य कामों का कोई आभास न था |  तारो को ही उसकी हर बात का ख्याल रखना पड़ता    |  धीरे  -धीरे तारो सब घटनाक्रम  को  रब का लिखा मान कर सारे कामों की अभ्यस्त हो गई | जब तक सास –ससुर  रहे , तारो - घर की दहलीज  के भीतर ही रही   - पर सास –ससुर के न रहने पर  उसे आजीविका  के लिए मजदूरी  करने  घर से बाहर  निकलना ही पड़ा ,  क्योंकि  जगतार की नाम की पेंशन  से उसका  गुजारा  नामुमकिन  था |   पहले –पहले  उसकी नज़र  शर्म से झुक जाती और वह  असहज  हो जाती   पर बाद में गाँव  में     उसे जो कोई भी कोई  काम  सौंपता  वह बड़ी लगन से उसे करती |  बच्चे कुछ बड़े हुए - वे  भी  घर के कामों में उसकी  मदद  करने लगे | तारो  के तीनों बच्चे  पढने  में बहुत  अच्छे थे   अतः  तारो  उन्हे   उच्च  शिक्षा  दिलाने  के लिए  हर संभव   प्रयास कर  रही  थी  -खासकर  उसका  बेटा निहाल पढाई  के साथ –साथ खेलों  में भी  बहुत  अच्छा था   |  उसके  स्कूल  के सभी  अध्यापक  उसकी प्रतिभा  से प्रभावित हो,  पढाई में उसकी हर मदद करने को तैयार  रहते |  गाँव वाले भी  जरूरत  पड़ने पर हर  मदद  करते   | छवि  ने देखा  तारो  उस  दुल्हन वाले रूप लावण्य को  न  जाने  कहाँ  छोड़ कर असमय एक अधेड़  महिला  के रूप में परिवर्तित  हो गई थी   !! लोगों  के बर्तन  मांजने  व  सफाई  करने  में  उसके  सुकोमल  हाथ बदरंग  व  पत्थर  जैसे  कठोर  हो गए  थे |  अपनी  शादी  में जब  छवि  ने उसे  लगातार  कई दिन बर्तन  मांजते  देखा  तो उसका दिल खून  के आंसू  रो पड़ा |  पर  तारो का चेहरा  न जाने कैसा  भावहीन  व सपाट हो गया  था   |  उसे  कोई  फर्क  नहीं पड़ रहा  था कि वह  कहाँ   व कैसा  काम कर  रही  थी   | छवि के बुलाने  पर वह  उसके पास  आई और  भावभीना  आशीर्वाद  देकर चली  गई   |


शादी  के बाद  भी छवि  तारो के बारे  में जानने  को उत्सुक  रहती |पिछली  बार जब  तारो  उससे  मिली  तो उसने  बताया कि उसका बेटा निहाल पास के शहर  के सरकारी  कालेज  से बी.ए. कर रहा है   व   बेटियां  बारहवीं  कलास में  पढ़  रही हैं    |   जगतार की हालत  बरसों  से जस की तस  थी - हाँ ,समय ने सेना के इस जांबाज  सिपाही को हड्डियों  का ढांचा  बना  कर रख  छोड़ा  था जो  अब  किसी  बूढ़े  आदमी जैसा  दिखने  लगा  था और समाज व परिवार  से बेखबर वह अपनी ही दुनिया  में विचरता  रहता --  पर अब ज्यादा  दूर  जाने  व भागने  की ताकत  अब उसमें  नहीं  बची  थी अतः वह घर के आसपास  या घर में ही घूमता  रहता था ------------------


आज  तारो के घर का रास्ता फिर से खुशियों ने देख  लिया था कारण  था तारो का बेटा सेना में सीधे हवलदार  भर्ती हुआ था --जहाँ से जगतार ने अपना मकसद  अधूरा छोड़ा  था --वहां के लिए बेटे को तैयार  करने के लिए तारो एक तपस्विनी की भांति  लगी रही ,जो एक ऐसे  पति का सपना था   -  आज  जिसे न अपना होश था न अपने सपने का  --- हाँ  अपनी  शादी  के  बाद छह साल तक   जगतार  से  मिले  प्रेम की  कृतज्ञता  उसके  साथ  थी   !  !  तारो के आँगन में बजता ढोल व पंजाबी गीतों पर मस्ती में झूमते- नाचते लोगों के पैरों से उडती धूल आसमान तक  जा रही थी --------  मानों  ईश्वर को चिढ़ा  रही थी    कि तुमने  कितनी ही  बाधाएं  खड़ीं  कीं  -  कितना  रास्ते में भटकाया पर एक अपराजिता  ने आज अंततः  अपनी  मंजिल  ढूँढ ही ली थी  ! !   सदा  चेहरे पर घूँघट  रखने  वाली तारो  आज घूंघट  छोड़ व  लोकलाज भूल आँगन में मस्त हो  पंजाबी  बोलियों पर गिद्दा  कर रही थी   |आज उसके  जीवन के कांटे फूलों में बदल  गए थे  |छवि की आँखे उसे  खुशी  में झूमते  देख   नम  हो गईं   |  मुद्दत  के बाद उसने  तारो  को खुल  कर हँसते  देखा !!   अचानक  जगतार की  हुंकार   सुन कर उसने  पीछे  मुड़कर देखा -  सब खुशियों से बेखबर जगतार लेफ्ट-  राईट ,लेफ्ट - राईट  करता  गली में छोटे  बच्चों  के आकर्षण  का केंद्र  बना हुआ था |

स्व लिखित -- रेण------------
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गूगल  प्लस से अनमोल टिप्पणी साभार 
Harsh Wardhan Jog's profile photo
कहानी अच्छी लगी.
पंजाब हिमाचल और गढ़वाल जैसे क्षेत्रों में इस तरह के किस्से अक्सर सुनने में आते हैं.
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2 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीया मासी,
    आपकी लिखी यह कहानी बहुत ही सुंदर है। आपकी इस कहानी ने मुझे अपनी दसवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक की याद दिला दी। उसमें मन्नू भंडारी द्वारा लिखी "अकेली" भी एक जीवट वाली स्त्री सोमा बुआ को कहानी बताती है, आज आपकी अपराजिता पढ़ कर उसी कहानी की याद आ गयी।
    तारो के माध्यम से आपने उस हर गृहणी को दर्शाया है जो कठिन परिस्थिति के आने पर धैर्य से उसका सामना करती है और अपने परिवार का पालन पोषण भी कर लेती है। हमारे शहीद जवानों की पत्नियाँ ऐसी ही अपराजिताएँ हैं। छवि और तारो का रिश्ता मन को छू गया। सुंदर सो कहानी के लिये हृदय से आभार और आपको प्रणाम।

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    1. प्रिय अनंता ,तुमने तो शहीदों का पत्नियों के बारे में लिखकर विषय को बहुत ही सुंदर विस्तार दे दिया है | यूँ तो अकेली और अपराजिता की विषय वस्तु बहुत भिन्न है पर फिर भी नारी के संघर्ष एक से हैं | और सच कहूँ तो अकेली तो मील का पत्थर है कथा संसार में | सस्नेह आभार कथा को इतने मनोयोग से पढने के लिए |

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