मेरी प्रिय मित्र मंडली

सोमवार, 22 अगस्त 2022

जीवन बोध

 


 पुरुष तुम  प्रकृति मैं ,
रहे एक दूजे में लीन सदा!
मन सिंहासन पर मेरे ,
तुम ही रहे आसीन सदा!

जन्मे साथ ना जाना था संग-संग 
गंतव्य से पर अनभिज्ञ रहे!
कब बात सुनी ज्ञानी मन की,
खुद को ही मान सर्वज्ञ रहे!
ना जान सके,जीवन नश्वर
जग-माया में रहे तल्लीन सदा!


मोह,विछोह ना जान सकी,
रही मुग्ध निहार स्व- दर्पणमें!
भूली  सब रिश्ते नाते ,
जब डूबी सर्वस्व समर्पण में !
तुम से दूर रही तनिक भी 
तड़पी ज्यों जल बिन मीन सदा!

मगन  झूमी  कस  भुजबंध में,
जाने अभिसार के रंग सभी !
शाश्वत प्रेम में हो तन्मय,  
जी ली, जी भर उमंग सभी!
 परवाह की ना  बेरंग दुनिया की,
सजाये स्वप्न नवीन सदा !
 
बड़ा कठिन विछोह सह जाना 
और जाना तुमसे दूर प्रियतम!
दुख दारुण विदा की बेला का,
है  सृष्टि का अटल नियम !
माटी की देह बनकर  माटी, 
माटी में हुई  विलीन सदा !!

 

62 टिप्‍पणियां:

  1. समर्पण का भाव बहुत खूबसूरती से लिखा है ।।लेकिन विदा की बेला की कल्पना क्यों कर मन में उपजी । अभी तो बहुत दूर तक साथ चलना है । यूँ सुंदर अभव्यक्ति ।।

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    1. प्रिय दीदी बहुत-बहुत आभार आपका इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए।सहर संसारिक रिश्ते का अन्त निश्चित है, इसी भाव को सहेजने का प्रयास किया है ।🙏🌹♥️♥️🌹

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  2. विदा की बेला का दुख दारुण,
    है सृष्टि का अटल नियम !
    माटी की देह बनकर माटी,
    माटी में हुई विलीन सदा !!........ सृष्टि के सत्य और जीवन के दर्शन को उद्घाटित करती रूहानी जज्बातों से लबरेज इस कविता में जयशंकर प्रसाद की इस चिंतन परंपरा की प्रतिध्वनि सुनाई देती है :
    यह सांझ उषा का आंगन
    आलिंगन विरह मिलन का
    चिरहास अश्रुमय आनन
    रे इस मानव जीवन का।
    पुरुष और प्रकृति के पारस्परिक व्यापार को संवेदना की तूलिका से चित्रित करती एक उत्कृष्ट दार्शनिक दास्तान।

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    1. आदरनीय विश्वमोहन जी,आपकी ये मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया मेरे ब्लॉग की अनमोल धरोहर है।मेरी साधारण-सी रचना का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने के लिए सदैव आभारी हूँ।हार्दिक आभार और प्रणाम 🙏🙏

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  3. वाह!! रेणु बहन बहुत सुंदर श्रृंगार भाव, प्रेम, समर्पण विश्वास सभी है पर अंत में बिछोह का दर्द रचना को हृदय स्पर्शी बना रहा है।
    अभिनव भाव सुंदर सृजन।

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    1. हार्दिक आभार प्रिय कुसुम बहन।आपकी प्रतिक्रिया सदैव ही मनोबल बढ़ाती है 🙏🌹🌹♥️♥️

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  4. वाह!सखी ,बहुत सुन्दर भाव लिए ,खूबसूरत सृजन । मिलन और बिछोह..अंतिम सत्य तो यही है ।

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    1. हार्दिक आभार और अभिनंदन प्रिय शुभा जी 🙏♥️♥️🌹🌹

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  5. वाह, बहुत सुंदर रचना।

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  6. बहुत सुंदर रचना

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  7. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना सखी

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    1. हार्दिक आभार और स्वागत प्रिय अभिलाषा जी 🙏🌹🌹♥️♥️

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  8. प्रेम और समर्पण का भाव लिए बहुत ही सुंदर रचना, रेणु दी। कितना भी अटूट प्रेमबंधन हो लेकिन विछोह अंतिम सत्य है। इस सत्य को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है आपने।

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    1. हार्दिक आभार और अभिनंदन आपका ज्योति जी।आपकी प्रतिक्रिया सदैव ही मनोबल बढ़ाती है 🙏🙏🌹🌹♥️♥️

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  9. मिलना बिछड़ना रीत यही है
    हार यही है जीत यही

    ये तो जीवन सत्य इससे कहां कोई बच सका है।

    और तुम जो इतने दिनों से हम सब से बिछुड़ी हुईं थीं उसका भी तो दर्द जानो सखी ,☺️ बेहद खुशी हुई तुम्हें फिर से सक्रिय देख कर।

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    1. तुम्हारी उपस्थिति और स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ सखी।कोशिश रहेगी ब्लॉग पर नियमित रहने की 🙏🌹🌹♥️♥️

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  10. बहुत ही सुन्दर और सच

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  11. बहुत ही सुन्दर और सच

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    1. प्रिय दीदी,आपकी प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा।हार्दिक आभार और प्रणाम 🙏🙏🌹🌹♥️♥️

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  12. बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना

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  13. हार्दिक आभार और अभिनंदन भारती जी 🙏🌹🌹♥️♥️

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  14. गहन अन्तरभावो की अभिव्यक्ति, बहुत सुंदर बहन जी

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    1. बहुत बहुत आभार और अभिनंदन प्रिय अनुज !मेरे ब्लॉग पर आपका सदैव स्वागत है।🌺🌺🌷🌺

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  15. सुंदर कोमल भावों से भरी आपकी यह रचना बहुत ही प्रभावशाली है। उत्तम सृजन। आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ। सादर।

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    1. हार्दिक आभार प्रिय वीरेंद्र जी।ब्लॉग पर आपका सदैव स्वागत है।🌺🌺🌺🌺

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  16. बहुत सुन्दर गीत रेणुबाला !
    लेकिन प्रेम में यह समर्पण एकपक्षीय ही क्यों?

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    1. आदरनीय गोपेश जी,समर्पण बिना किसी प्रत्याशा के एक पक्षीय ही होता है। हार्दिक आभार आपकी आत्मीयता भरी प्रतिक्रिया के लिए 🙏🙏🌺🌺🌷🌺🌺

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  17. वाह....श्रृंगार,समर्पण,प्यार का भाव संजोए अद्भुत रचना प्यारी बहन

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    1. हार्दिक आभार प्रिय उर्मि दीदी 🙏🙏🌷🌷🌺🌺

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  18. वाह सखी बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति।

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    1. हार्दिक आभार प्रिय अनुराधा जी 🙏🌷🌷🌺🌺

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  19. खूबसूरत प्रस्तुति आदरणीया ! बहुत सुंदर ।

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    1. हार्दिक आभार राजेश जी।एक अर्से बाद आपको ब्लॉग पर देखकर अच्छा लगा 🙏🙏

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  20. पुरुष के प्रति प्रकृति के समर्पण को दर्शाती बहुत ही सुंदर रचना है रेणु दीदी।

    नारी का यह निश्चल प्रेम, त्याग, सेवा और उत्सर्ग भावना ही पुरुष के पाषाण हृदय को भी अपने मोहपाश में बांध लेती है ।यही आकर्षण आपकी इस रचना में है ।

    संयोग और वियोग तो इस सृष्टि का शाश्वत सत्य है। लेकिन जीवन के चंद दिनों में जो खुशियाँ हमें मिल रही हैं,उसे समेट लेनी चाहिए।🙏🌹

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    1. शशि भैया,एक अन्तराल के बाद आप मेरे ब्लॉग पर आये,आपका बहुत- बहुत स्वागत है ।आपकी रचना के मर्म को छूती प्रतिक्रिया पाकर अच्छा लगा।हार्दिक आभार है आपका 🙏

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  21. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 25 अगस्त 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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    1. पाँच लिंक मंच और आपका हार्दिक आभार रवींद्र भाई 🙏

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  22. दिगम्बर नासवा25 अगस्त 2022 को 12:59 am बजे

    प्रेम और समर्पण भाव में पगी सुंदर रचना … नारी मन की कोमल भावनाएँ, प्रेम और त्याग भाव वैसे भी प्रबल रहता है और आपने विरह के पल, विदा के पल में बखूबी रचा है उन्हें . एक कमाल की रचना …

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  23. मगन झूमी कस भुजबंध में,
    जाने अभिसार के रंग सभी !
    शाश्वत प्रेम में हो तन्मय,
    जी ली, जी भर उमंग सभी!
    परवाह की ना बेरंग दुनिया की,
    सजाये स्वप्न नवीन सदा !
    प्रेम की इस सघन तन्मयता में विरह और विछोह कितना दारुण होगा सृष्टि के इस नियम का खण्डन तो पाठक भी असह्य होकर कर रहे हैं ...
    दुख दारुण विदा की बेला का,
    है सृष्टि का अटल नियम !
    माटी की देह बनकर माटी,
    माटी में हुई विलीन सदा !!
    सघन प्रेममय मिलन और फिर दारुण दुख भरा विछोह एक साथ दोनों का एहसास करवाना सिर्फ आपकी लेखनी की ही कला है ।
    बहुत दिनों बाद पर हमेशा की तरह बहुत ही लाजवाब सृजन ।

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    1. प्रिय सुधा जी,एक जीवन यात्रा को शब्दों में पिरोने की कोशिश की है।आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया सदैव ही विशेष रहती है। रचना के मर्म को छूते भावों के लिये हार्दिक आभार आपका 🌺🌺🌹🌹🙏

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  24. मगन झूमी कस भुजबंध में,
    जाने अभिसार के रंग सभी !
    शाश्वत प्रेम में हो तन्मय,
    जी ली, जी भर उमंग सभी!
    परवाह की ना बेरंग दुनिया की,
    सजाये स्वप्न नवीन सदा !
    .... सुंदर सात्विक प्रेम की अनन्य परिभाषा ! मेरी रचना की पंक्तियां आपकी सुंदर रचना को समर्पित है

    पिया मोहे मत दीजो जंजाल ।
    प्रेम बिना मोरा मनवाँ सूना
    तन निर्धन कंगाल ॥

    ऐसे सरस छवि मन बस जाए
    और न माँगे कुछ ये ।
    आँचल भर जब सृष्टि निहारे
    भरे कोख सरबस ये ॥
    तन की मिट गई मन की मिट गई
    मिट गया क्लेश का काल ।
    पिया मोहे मत दीजो जंजाल ॥

    अगध अगाध सिंधु औ सरिता
    सब नैनन के वासी ।
    छोड़ि बसे मन ये जग सारा
    मन में बसे जब कासी ॥
    ऐसे हृदय औ नेह की भूखी
    यहि नैहर ससुराल ।
    पिया मोहे मत दीजो जंजाल ॥

    जिज्ञासा सिंह

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  25. प्रिय जिज्ञासा जी,मूल रचना से कहीं सुन्दर और भावपूर्ण रचना है आपकी। एक अभिनव अनुराग सिक्त और मोहक अनुभूतियों सेसजी आपकी ये प्रस्तुति , मेरे ब्लॉग पर एक स्नेहिल उपहार के रूप में रहेगी। आभार नहीं ढेरों प्यार और शुभकामनाएं 🌺🌺🌹🌹♥️

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  26. श्रृंगार के संयोग और वियोग पक्ष के साथ सांसारिक नश्वरता के भावों का अनूठा समन्वय लिए मनोहर सृजन रेणु जी ! अनुपम और अभिनव सृजन के लिए आपको बहुत बहुत बधाई 🌹

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    1. सादर अभिनंदन प्रिय मीना जी।रचना के मर्म को स्पष्ट करती प्रतिक्रिया के लिए सस्नेह आभार 🙏🌺🌺

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  27. इस शाश्वत प्रेम (बोध) में बस तन्मय ही हुआ जा सकता है... शब्दों के पार होकर......

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    1. आपका हार्दिक स्वागत है प्रिय अमृता जी।आपकी यहाँ उपस्थिति से बहुत सन्तोष हुआ।🙏🌺🌺

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  28. भावपूर्ण और प्रभावी रचना
    बहुत सुंदर
    बधाई

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  29. सुंदर भाव
    खूबसूरत प्रस्तुति!!

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    उत्तर
    1. ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है प्रिय रुपा जी।आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ 🙏🌺🌺

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  30. दीपावली की शुभकामनाएं। सुन्दर प्रस्तुति व अनुपम रचना।

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    उत्तर
    1. आपका आभार हार्दिक स्वागत है मेरे ब्लॉग पर 🙏

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