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रविवार, 29 जून 2025

कहो कवि!

 
 



 कवि! तुम कहाँ लिख सकोगे
 कहानी नारी के अधिकार की! 
मुक्त न हो पाई जिससे कभी
उस मन के कारागार की!! 
 
ना पढ़ पाओगे सूने नयन के
खंडित सपनों की ये भाषा ! 
ना आ सकी विदीर्ण मन के
काम कोई जग की दिलासा! 
सब खोये अपनी लगन में
कौन था अपना यहाँ?
असहनीय थी ,बेगानों से ज्यादा
चोट अपनों की मार की! 
कवि! तुम कहाँ लिख सकोगे
कहानी नारी के अधिकार की



पिंजरे में बन्द मैना युगों से
गाती सबसे रसीला गान कवि! 
उन्मुक्त उड़ान की चाह को उसकी
कोई कब  पाया जान कवि! 
समाएगी कैसे अस्फुट स्वरों में 
पीर स्वर्णिम  कैद की! 
गीत में ना ढल सका जो
उस निःशब्द हाहाकार की! 
 कवि! तुम कहाँ लिख सकोगे
 कहानी नारी के अधिकार की!  


सत्य पर भ्रमित पति से
क्या प्रेम का प्रतिफल मिला? 
ऋषि गौतम के शाप से
जो बन गई शापित शिला! 
आगंतुकों की ठोकर में
पड़ी रही निस्पंद जो
कौन व्यथा जान सका 
उस अहल्या नार की! //
कवि! तुम कहाँ लिख सकोगे
कहानी नारी के अधिकार की



29 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ...अद्भुत रचना👌👌

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  2. बहुत ही मर्मस्पर्शी , स्त्री की वेदना एक स्त्री ही समझ सकती है ।

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  3. वाह वाह और वाह, व्यथित नारी मन का चित्रण

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  4. हे शक्तिस्वरूपा ! स्वयंसिद्धा बन ! रिपुदलसंहारिणी बन !
    वैसे कविता मार्मिक है लेकिन इस सोच को बदलना होगा !

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  5. व्यथित नारी के मन पीड़ा
    कौन भला लिख पाया है?
    मन पिंजरे की आकुलता
    उड़ना कब सीख पाया है?
    स्याही वेदना की जम जाती
    नुकीली आह में शब्द खो गये
    कवि बेसुध धुँध में छटपटाया है।
    -----

    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ३० जून २०२५ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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    1. इस काव्यात्मक सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ प्रिय श्वेता 🌹

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  6. दी,कृपया,आमंत्रण में 1 जुलाई पढ़ें।

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    उत्तर
    1. प्रिय श्वेता और पांच लिंक शुक्रिया और आभार 🌹

      हटाएं
  7. यथार्थ का स्पर्श करती एक अत्यंत मर्मांतक रचना जो २१ वीं शताब्दी की तथाकथित अत्याधुनिक विकसित सभ्यता को मुंह चिढ़ाती है, जहां अभी भी :
    गलियों में, गलियारों में,
    लैला, हीर और पारो में।
    खेतों में खलिहानों में,
    मन- मन गुनती गानों में।

    गौतम का न्याय, छुई मुई!
    अहिल्या ही पाषाण हुई।
    त्रेता में तपती सीता हो,
    द्वापर की परिणीता हो।


    शाह बानो का शौहर हो,
    दुर्गावती का जौहर हो।
    दंगाई का दंगा हो,
    और, औरत ही नंगा हो!

    नीर भया चीत्कार हो,
    मणिपुर बलात्कार हो।
    खाने में बस जूठन हो,
    घर में घुटती घुटन हो।

    चाहे कलाली चकला हो,
    या जयशंकर की अबला हो।
    सदियों से यही कहानी है,
    आंचल में दूध, आंखों में पानी है।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक आभार और अभिनन्दन आदरणीय विश्व मोहन जी! आपकी भावपूर्ण प्रतिक्रिया ने मेरी रचना के भावो से कदमताल मिलाई हैं. ये काव्यत्मक टिप्पणी एक थाती के साथ मार्मिक विचार हैं नारी विमर्श पर. पुनः आभार और प्रणाम 🙏

      हटाएं
  8. भावपूर्ण अभिव्यक्ति, बहुत सुंदर

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  9. बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना सखी

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  10. नारी की व्यथा ही उसकी शक्ति बनती है, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती के रूप में नारी ही वीरों, विद्वानों और कुबेरों को जन्म देती है

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    उत्तर
    1. जी अनीता जी सच कहा आपने | पीड़ा ही शक्ति और सृजन का स्त्रोत है , विशेषकर नारी के लिए | सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका |

      हटाएं
  11. मर्म को छूती हुई गुज़रती है रचना … नारी मन को जिया है रचना में आपने … बहुत समय बाद आपको ब्लॉग पर पढ़ा … अच्छा लगा, निरंतर रहिए

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. जी दिगम्बर जी , ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है | कोशिश कर रही हूँ ब्लॉग पर निरंतर रहने की|

      हटाएं
  12. वाह!प्रिय सखी रेणु जी ,बहुत खूबसूरत भावों से सजी रचना । सही कहा आपनें ,कौन समझ पाया है नारी मन की व्यथा ....

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  13. आपकी उत्साहजनक प्रतिक्रिया के लिए आभार प्रिय शुभा जी |

    जवाब देंहटाएं

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